________________
जैनविद्या 25
तक लिखा है कि 'जो व्यक्ति अत्यन्त भक्ति के साथ सल्लेखनाधारक (क्षपक) के दर्शन-वन्दन-सेवादि के लिए निकट जाता है वह व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोगकर अन्त में उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है।”
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि भी सल्लेखना के महत्त्व और आवश्यकता को बतलाते हुए लिखते हैं कि मरण किसी को इष्ट नहीं है। जैसे अनेक प्रकार के सोने, चाँदी, बहुमूल्य वस्त्रों आदि का व्यापार करनेवाले किसी भी व्यापारी को अपने घर का विनाश कभी भी इष्ट नहीं होता। यदि कदाचित् उसके विनाश का कोई (अग्नि, बाढ़, राज्यविप्लव आदि) कारण उपस्थित भी हो जाए तो वह उसकी रक्षा करने का पूरा उपाय करता है और जब रक्षा का उपाय सफल होता हुआ नहीं देखता तो घर में रखे हुए उन सोना, चाँदी आदि बहुमूल्य पदार्थों को जैसे-बने-वैसे बचाता है तथा घर को नष्ट होने देता है, उसी तरह व्रतशीलादि गुणरत्नों का संचय करनेवाला व्रती-मुमुक्षु गृहस्थ अथवा साधु भी उन व्रतादि गुणरत्नों के आधारभूत शरीर की जहाँ तक संभव हो सदा रक्षा करता है - उसका विनाश उसे इष्ट नहीं होता। यदि कदाचित् शरीर में रोगादि विनाश का कारण उपस्थित हो जाये तो उनका वह पूरी शान्ति के साथ परिहार करता है। लेकिन जब असाध्य रोग, अशक्य उपद्रव आदि की स्थिति देखता है और शरीर का बचना असंभव समझता है तो आत्मगुणों की रक्षा करता हुआ शरीर को नष्ट होने देता है। सल्लेखना कब धारण की जाए
1. जब शरीर अत्यन्त अशक्त हो गया हो। 2. जब शरीर असाध्य रोग से आक्रान्त हो गया हो। 3. जब भयंकर अकाल हो। 4. जब शरीर आवश्यक क्रिया करने में अक्षम हो गया हो।
5. जब नित्य क्रिया, करवट बदलने या उठने-बैठने में अक्षमता हो गयी हो।
6. चारित्र-विनाशक उपसर्ग आने पर। 7. जब भयानक अटवी में व्यक्ति भटक गया हो।
आचार्य समन्तभद्र' के अनुसार जब ऐसा उपसर्ग या दुर्भिक्ष आ जाए जिसका प्रतिकार सम्भव नहीं है, ऐसी वृद्धावस्था हो जाए जब धार्मिक क्रियाएँ अच्छी प्रकार सम्पन्न न की जा सकें अथवा ऐसा रोग हो जाए जिसका कोई