Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 74
________________ जैनविद्या 25 61 11. साधक द्वारा प्रशंसा, लोकेषणा, वित्तेषणा, सम्मान तथा लोग मेरे दर्शनार्थ आयें - ऐसी अपेक्षाएँ न करना, निरपेक्ष शान्त भाव से रहना अपेक्षित समाधिमरण/सल्लेखना के योग्य पात्र हैं - 1. जिसने साधु लिंग स्वीकार किया हो। 2. जो ज्ञान भावना में निरन्तर तत्पर हो। 3. जो शास्त्र निरूपित विनय का पालन करता हो। 4. जिसका मन रत्नत्रय में हो। 5. जिसका चित्त अशुभ परिणामों के प्रवाह से रहित हो। 6. जिसका चित्त वशवर्ती हो। सल्लेखना/समाधिमरण का प्रयोजन जीवनभर जप-तप करने पर भी अगर मृत्युसमय समाधि धारण न की जावे तो सारा जप-तप उसी तरह वृथा होता है जिस तरह विद्यार्थी पूरे वर्षभर पाठ याद करे और परीक्षा के समय उसे भूल जाये या शस्त्राभ्यासी योद्धा रणक्षेत्र में जाकर कायर बन जाये या कोई दूर देशान्तर से धनोपार्जन करके लाये और उसे गाँव के समीप आकर लुटा बैठे। बिना समाधिमरण के चारित्रवान् जीवन भी फलहीन वृक्ष की तरह निस्सार होता है। इसी को स्वामी समन्तभद्र ने बहुत सुन्दर शब्दों में रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है - अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। • तस्मात् यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्।।123।। अर्थात् आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक मरण होना ही तप का फल है, इसलिए शक्ति के अनुसार समाधिमरण साधने का प्रयत्न करना चाहिए। मृत्यु के समय अगर आत्मा कषायों से चिकनी (सचिक्कण) नहीं होती तो वह अनायास शरीर-त्याग कर देती और उसे मारणांतिक संक्लेश भी विशेष नहीं होता, उसका मानसिक संतुलन ठीक रहता है जिससे स्वेच्छानुसार सद्गति प्राप्त करने में वह समर्थ होती है, और जब सद्गति प्राप्त हो जाती है तो पूर्वोपार्जित दुष्कर्म भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते, और अगर अन्त समय में परिणाम कलुषित हो जाते हैं तो दुर्गति प्राप्त होती है जिसमें पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों को भोगने का

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