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जैनविद्या 25
व्रतों और साधु के द्वारा पंच महाव्रतों के अनन्तर पर्याय के अन्त में इसे ग्रहण किया जाता है। 3
स्व-परिणामानुसार प्राप्त जिन आयु, इन्द्रियों और मन, वचन, काय इन तीन बलों के संयोग का नाम जन्म है, उन्हीं के क्रमशः अथवा सर्वथा क्षीण होने को मरण कहा गया है। यह मरण दो प्रकार का है (1) नित्य मरण, (2) तद्भवमरण । प्रतिक्षण जो आयु आदि का ह्रास होता रहता है वह नित्यमरण है तथा शरीर का समूल नाश हो जाना तद्भवमरण है । 4 नित्यमरण तो निरन्तर होता रहता है, उसका आत्म-परिणामों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, पर शरीरान्त रूप जो तद्भवमरण है उसका कषायों एवं विषय-वासनाओं की न्यूनाधिकता के अनुसार आत्मपरिणामों पर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस तद्भवमरण को सुधारने और अच्छा बनाने के लिए ही सल्लेखना ली जाती है। सल्लेखना से अनन्त संसार की कारणभूत कषायों का आवेग समाप्त या क्षीण हो जाता है, जिससे जन्म-मरण का चक्र बहुत ही कम हो जाता है।
सल्लेखना के मुख्य अंग
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1. तप द्वारा आहार को धीरे-धीरे कम करते जाना ।
2. कषायों का उपशमन व अल्पीकरण ।
3. शरीर को समाधिस्थ, शान्त व स्थिर रखने का अभ्यास ।
4. योग (मन, वचन, काया) की संलीनता ।
सल्लेखना की विशेषताएँ
1. साधक को यह ज्ञान हो कि शरीर व आत्मा अलग-अलग हैं।
2. आत्मा निश्चयनय से पूर्णतया विशुद्ध है।
3. कर्मों के कारण जन्म-मरण और संसार है।
4. तप द्वारा निर्जरा पर बल, कर्म क्षय की प्रक्रिया ।
5. वृद्धावस्था व रुग्णता में प्रसन्नचित्त से सल्लेखना ।
6. मृत्यु के विषय में पूर्ण जानकारी ।
7. पूर्व वैर के लिए संसार के सब जीवों से क्षमा-याचना ।
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8. समभाव रखना।
9. राग-द्वेष में अनासक्त रहना ।
10. स्वेच्छा से सल्लेखना करना, किसी के दबाव से नहीं ।