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जैनविद्या 25
का क्षयकर क्षायिक सम्यक्दृष्टि होकर अप्रमत्त गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण करता है। बाद में क्रमशः अपूर्वकरण, सूक्ष्मसापराय, क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों को प्राप्त करता हआ घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है और फिर अघातिया कर्मों का भी विनाश करने के लिए सत्यवचन योग, अनुभयवचन योग, सत्यमनोयोग आदि के निग्रह का प्रारम्भ करता है (2081-2102)।
समुद्घात - भगवती आराधना के अन्त में समुद्घात प्रक्रिया दी हई है। समुद्घात का तात्पर्य है जीव के प्रदेशों का शरीर से बाहर दण्ड आदि के आकार रूप से निकलना। वे ही केवलज्ञानी समुद्घात क्रिया करते हैं जिनकी आयु छह माह शेष रह जाती है। शेष केवलज्ञानी समुद्घात करते भी हैं, नहीं भी करते हैं। वे सयोग केवलीजिन समुद्घात किये बिना 'शैलेशी अवस्था' को प्राप्त कर लेते हैं जिनकी नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति आयुकर्म के समान होती है। जिनकी स्थिति असमान होती है वे समुद्घात करके ही 'शैलेषी अवस्था' पाते हैं। समुद्घात करने से स्थितिबंध का कारण जो स्नेह गुण है वह नष्ट हो जाता है और फलतः शेष कर्मों की स्थिति घट जाती है उसी तरह जैसे गीले कपड़े को फैलाकर सुखा दिया जाता है। बाद में शुक्लध्यान के द्वारा योगनिरोध कर अयोगकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं, सिद्ध हो जाते हैं (2103-2127)। 3. समाधियोग
मरणसमाधि की सार्थकता समाधियोग से है। समाधियोग का तात्पर्य है - मन-वचन-काय को एकाग्र करना। इसे शुद्धोपयोग और ध्यान कहा जाता है। यह ध्यान शुभोपयोग और अशुभोपयोग से हटकर है। यह समाधि दो श्रेणियों में विभाजित है - पहली श्रेणी में साधक किसी वस्तु विशेष पर ध्यान करता है
और दूसरी श्रेणी में वह वस्तु भी अलग हो जाती है। इसे शुक्ल ध्यान कहा जा सकता है।
समाधि का अभ्यास शिक्षाव्रतों से होता है। सामायिकव्रत उनमें प्रमुख है। सामायिक में साधक आत्मचिन्तन करता हुआ अपना ध्यान अशुभोपयोग से हटाकर शुभोपयोग में केन्द्रित करता है। पूज्यपाद ने इसे 'एकत्वगमन' कहा है (स.सि. 7.21)। सामायिक षडावश्यकों में प्रथम आवश्यक है। चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना,
शील के 18,000 भेदों की पूर्णता की अवस्था है शैलेषी अवस्था।