Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ जैनविद्या 25 प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग समाधि के ही अंग हैं। सामायिक से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सामायिक करनेवाले को समन्तभद्र ने ऐसा मुनि माना है जिसे लोगों ने वस्त्र से आवृत कर दिया हो (रत्नकरण्ड. 102)। सामायिक साधक को आर्त-रौद्र ध्यान से मुक्त कर शुक्लध्यान की ओर ले जाता है। श्रुति और वन्दना उसे सहयोग करती हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने परमभक्ति, निवृत्तिभक्ति, योगभक्ति का विधान किया है (नियमसार 135)। उन्होंने प्रतिक्रमण में भी व्यवहार और निश्चय प्रतिक्रमण का क्रम देकर साधक को प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग करने की प्रेरणा दी है (वही, 83-91)। दशवैकालिक सूत्र में समाधि को विनय, श्रुत, तप और आचार पर आधारित बताया है। समाधि के लिए तप करना नितान्त अनिवार्य है। तप यदि सम्यक् है तो वह कर्मरूपी ईंधन को जला देता है, अन्यथा मात्र शरीर को सुखाना ‘बालतप' होगा। बाह्यतप के साथ ही अभ्यन्तर तप करने से मन केन्द्रित हो जाता है, संलीनता की स्थिति आ जाती है और ध्यान की प्राप्ति होती है। जब ध्यान में विषय-विषयी एक हो जाते हैं तो उसे 'समाधि' कहा जाता है। आचार्य शुभचन्द्र से ध्यान को 'शुभ', 'अशुभ' और 'शुद्ध' में वर्गीकृत किया है। कतिपय आचार्यों ने उसे ‘प्रशस्त' और 'अप्रशस्त' में विभाजित किया है। अप्रशस्त ध्यान में आर्त और रौद्र ध्यान आते हैं और प्रशस्त ध्यान में धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अन्तर्भाव होता है। शुक्लध्यान वज्रवृषभ नाराचसंहननवाले ही कर पाते हैं। इसमें चौदहपूर्वो का गहन अभ्यास और आत्मचिन्तन होता है। यहाँ तक साधक बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। बाद में वह केवली बनकर मुक्त हो जाता है। योगशास्त्र और ज्ञानार्णव में ध्यान के चार भेद किये गये हैं - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। द्रव्यसंग्रह में इसे पंचपरमेष्ठियों का ध्यान बताया है। ___ कायक्लेश समाधि का ही एक भाग है। समाधि में आसनों का भी बहुत महत्त्व है। सर्वप्रथम समाधि के लिए स्थान का चुनाव किया जाता है। यह स्थान निष्कंटक होना चाहिए जहाँ न दुष्ट राजा हो न जुआरी-शराबी हों। वह स्थान भीड़मुक्त हो, न अधिक उष्ण और न अधिक ठण्डा हो। जिनसेनाचार्य ने ऐसे समाधि-योग्य स्थानों की सूची दी है जिनमें प्रमुख हैं - श्मशान, उजड़े घर या उद्यान, नदी का किनारा, पर्वत, गुफा, जंगल, जिनालय। वृक्ष के नीचे ध्यान करना सर्वाधिक अनुकूल होता है (पूर्वपुराणम् 21.57.58)।

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