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जैनविद्या 25
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के नव दोष गिनाये हैं - आज्ञा कोप, कठोर वचन, कलह, दुःख आदि; निर्भयता, स्नेह, करुणा, ध्यान में विघ्न और असमाधि (आ. 387)। साधक 5 से 700 योजन दूरवर्ती गण में सम्मिलित हो सकता है।
(5) मार्गणा - क्षपक साधक निर्यापकाचार्य (पथदर्शक) को खोजता है और निर्यापकाचार्य क्षपक की परीक्षा लेता है, उससे चारित्र आदि की जाँच करता है। जब दोनों परस्पर में संतुष्ट हो जाते हैं तो उसे मार्गणा कहा जाता है (404)।
(6) सुस्थित - इसमें क्षपक और निर्यापकाचार्य के गुणों का उल्लेख है। पर-गण के साधु क्षपक को समुचित आदर देते हैं और संयमी तथा आगमज्ञ निर्यापकाचार्य आवश्यक, प्रतिलेखन आदि के माध्यम से उसकी परीक्षा कर गण की सहमतिपूर्वक उसे स्वीकार करता है। क्षपक के उपसर्पण (प्रार्थना) के साथ प्रक्रिया का प्रारंभ होता है। इस प्रसंग में आचेलक्य, औद्देशिक का त्याग, कृतिकर्म आदि दस कल्पों का विधान है (510-523)।
(7) आलोचना - क्षपक अपने दोषों की आलोचना करता है और निर्यापकाचार्य के समक्ष उनका प्रायश्चित्त करता है (524-631)।
_(8) वसति - गाथा 528 में आचार्य के 36 गुण गिनाये गये हैं। इसके बाद अनुकूल वसति की खोज की जाती है जहाँ साधना में किसी प्रकार का व्यवधान न हो। वह गुहा या झोंपड़ी भी हो सकती है पर उसे स्वच्छ और निर्दोष होना चाहिए (638-645)। इसके लिए पृथक् मण्डल या साधारण घर भी बनाया जा सकता है।
(9) संस्तर - सल्लेखनाधारी साधक के लिए ऐसी वसतिका में संस्तरण लगाया जाना चाहिए। वह संस्तरण निर्दोष पृथ्वी पर, शिला पर, फलक पर या तृणों पर होना चाहिए। उसका शिर पूर्व या उत्तर दिशा में हो, शरीर प्रमाण हो। ऐसे संस्तरण पर क्षपक आहार को त्याग कर शरीरादि की सल्लेखना करता है (631-645)।
(10) प्रकाशन - निर्यापकाचार्य इसके बाद क्षपक की देखभाल के लिए 2 से 48 संख्या तक साधुओं को या निर्यापकों को नियुक्त करता है (647-669)। ये साधु उसे धार्मिक ग्रन्थों और कथाओं का श्रवण कराते हैं और