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जैनविद्या 25
उसकी सेवा में रत रहते हैं। इस समय निर्यापकाचार्य क्षपक को आहार के प्रति निरासक्त रखने का प्रयत्न करते हैं और अशन, खाद्य और स्वाद्य तीनों प्रकार का आहार छोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं और मात्र पानक (पेय = पीने योग्य) आहार में उसे सीमित कराते हैं (694-698)।
भगवती सूत्र में भी सल्लेखना का इसी प्रकार वर्णन मिलता है (13.6.491)। मूलाराधना, अनागार धर्मामृत, आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, संवेगरंगशाला आदि ग्रन्थों में भी सल्लेखना की प्रक्रिया का इसी तरह विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। भगवती सूत्र में श्रमण निर्ग्रन्थ धर्म का मूल रूप निर्वेद बताया है और कहा है कि सल्लेखना का साधक व्रती अपराधस्वीकृति, पश्चात्ताप करता हुआ ध्यान और प्रत्याख्यान करता है। वहाँ दीक्षा का भी चित्रण हुआ है और निर्ग्रन्थ धर्म को लोहे जैसा कठिन/कठोर और धूलि जैसा निस्स्वाद माना है (13.6.491)। इसी ग्रन्थ में स्कन्दक को महावीर द्वारा दिया गया सल्लेखना व्रत का भी वर्णन मिलता है (2.1.94-95)।
श्रवणबेलगोला में सल्लेखना की इस प्रक्रिया को पाषाण पर उत्कीर्ण कर उसे मूर्तरूप दिया गया है। वहाँ श्रितमुनि को सल्लेखना लेते हुए चित्रित किया गया है। इसी तरह अजितसेन मुनि से गंगमारसिंह द्वारा समाधिव्रत लिए जाने का भी विषय उत्कीर्णन हुआ है (364)। इन उदाहरणों में दिसा, मार्गणा, आलोचना आदि का सुन्दर रूपायण मिलता है। मेघचन्द्र त्रैविद्यदेव ने इसी प्रक्रिया से समाधिव्रत लिया और प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। अनुशासन का भी चित्रण हुआ है। वादीभसिंह द्वारा अजितसेन और श्रितमुनि के उपदेश देते हुए चित्रित किया गया है (वही, 77, 389, 364)। क्षपक का स्व-गण परित्याग और पर-गण प्रवेश का भी ऐतिहासिक चित्रण हुआ है। आचार्य अरिष्टनेमि उत्तर से दक्षिण अपने शिष्यों के साथ आये और कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण व्रत लिया (वही, 13)। इसी तरह आचार्य प्रभाचन्द्र का भी उल्लेख मिलता है (वही, 364)। पर-गण के आचार्य द्वारा समाधिमरण दिये जाने का विवरण यहाँ नहीं मिलता। श्रावक अवश्य अपने आचार्य के निर्देशन में समाधिमरण लेते हुए चित्रित हुए हैं। गंगमारसिंह, लक्ष्मीमती और माचिकव्वे के उदाहरण ऐसे ही हैं (वही, 64, 157, 173)।
श्रवणबेलगोल आचार्य भद्रबाहु के ही काल से समाधिमरण के लिए सर्वोत्तम स्थान माना जाता रहा है। पहले तो वह सर्प, भालु, सिंह आदि से व्याप्त था।