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जैनविद्या 25
बाद में वह तीर्थस्थल बन गया और गुफायें, मंदिर, निसिधि - मण्डप आदि का निर्माण हो गया । गुणकीर्ति, अनन्तमतिगति, प्रभाचन्द्र, चन्द्रदेवाचार्य, कनकसेन आदि साधक मुनियों ने पर्वत का कोई भाग अपने मरणान्तिक तप के लिए चुना और समाधिमरण पाया। अजितकीर्तिदेव और मल्लिषेणदेव ने भद्रबाहु गुफा में अपना प्राण विसर्जन किया। मलधारिदेव ने पार्श्वनाथ वसदि और चारुकीर्ति पण्डितदेव ने सिद्धर वसदि का चुनाव किया।
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10-11वीं शती में समाधिमरण व्रत का परिपालन करने के लिए पृथक् रूप से मण्डल बनाये जाने लगे। ये मण्डल, प्राथमिक स्तर पर साधारण तौर पर बनाये जाते थे और बाद में इन्हें पाषाण - निर्मित कर लिया जाता था। इन्हें साधक के सम्बन्धी बनवाते थे या गणाचार्य । चन्द्रगिरि पर ऐसे अनेक मण्डप विद्यमान हैं। निर्यापकाचार्य, उनका संघ और दर्शनार्थी इन मण्डपों में आया-जाया करते थे। निर्यापकाचार्य के निर्देशन में समाधिमरण की सारी प्रक्रिया पूरी की जाती थी। कुमारसेन, मलधारिदेव, प्रभाचन्द्र, चारुकीर्ति, अभिनव पण्डितार्य, देवकीर्ति, शुभचन्द्रदेव अनेक ऐसे आचार्यों का उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में आता है जो निर्देशन के साथ ही उपदेश भी देते थे। संघ और श्रावकगण साधक की वन्दना करने जाया करते थे। ऐसे साधकों को अन्तिम समय दीक्षा भी दे दी जाती थी और अन्तरंग और बाह्य तप को धैर्य के साथ पूरा करने का उपदेश दिया जाता था। माचिकव्वे और शान्तिकव्वे को इसी तरह दीक्षा दी गयी थी । प्रभाचन्द्रदेव ने उनके गंगराज और लक्ष्मीमती आदि जैसे अभिभावकों को निसिधि, मण्डप आदि बनाने की भी प्रेरणा दी।
साधक समाधिमरण-काल में कुक्कुटासन, पल्यंकासन, कायोत्सर्ग या एकपार्श्व ग्रहण करते थे। इनमें मलधारिदेव ने कुक्कुटासन, मेघचन्द्रदेव ने पल्यंकासन और चतुर्मुख ने कायोत्सर्ग को स्वीकार किया था। माचिकव्वे ने संन्यास ग्रहण किया और जिनेन्द्र का स्मरण करते हुए णमोकार मन्त्र के उच्चारण के साथ अपना जीवन समाप्त किया। श्रितमुनि ने भी इसी तरह अर्धोन्मीलित मुद्रा में सिद्धावस्था का ध्यान करते हुए समाधिमरण पूरा किया। अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन उनकी साधना
का सम्बल रहा ।
3. अन्तिम चरण इस अवस्था में प्रत्याख्यान के माध्यम से साधक शरीरादि से ममता का त्याग करता है और निम्नलिखित दस बिन्दुओं को स्वीकार करता है ताकि सांसारिक अवस्था से पूर्णतः निर्मोही बना जा सके। ये दस बिन्दु
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