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जैनविद्या 25
हैं - क्षमा, कर्मक्षपण, अनुश्रुति, सारणा, कवच, समभाव, ध्यान, लेश्या, फल और विजहण (699-708)।
(1) क्षमा - क्षपक साधक सर्वप्रथम समस्त मुनि संघ से अपने कृत अपराधों के प्रति क्षमायाचना करता है और वैराग्य भाव के कारण कर्म निर्जरा करता है (709-714)।
(2) कर्मक्षपण - संस्तर पर आरूढ़ क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओं के चिन्तन से कर्मों की निर्जरा करता है।
(3) अनुश्रुति - इसी समय निर्यापकाचार्य उसे कान में रत्नत्रय का परिपालन करते हुए सल्लेखना लेने के लिए आदेश देता है तथा मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन तीनों शब्दों से मुक्त होकर महाव्रतों का पालन, कषायों का निग्रहण, जिन भक्ति, नमस्कार मन्त्र की आराधना, ज्ञानोपयोग में लीन होने आदि के लिए प्रेरित करता है, ध्यान का वर्णन करते हुए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का उपदेश देता है (719-1484)। गाथा 1057-1059 में संसाररूपी वृक्ष का चित्रण है जिसमें एक पुरुष वृक्ष की डाल पकड़कर मोहवश लटका हुआ है और दो चूहे उस डाल को काट रहे हैं। इसे 'मधुबिन्दु' कहा जाता है। अनेक कथाओं का भी इस सन्दर्भ में कथन हुआ है।
(4) सारण - समाधिमरण स्वीकार करने के बाद साधक के सामने ऐसी अनेक समस्याएँ आती हैं जिनसे उसका मन विचलित (सारण) हो सकता है। ऐसी स्थिति में निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि वह उसे विचलित होने से रोके। उसे अनुकूल पानक दे, रोग की चिकित्सा करे, आहारादि के प्रति उसकी आसक्ति को उपदेश देकर दूर करे और कटुक वचन न बोले (1485-1507)।
(5) कवच - यदि साधक कठिनाइयों से मुक्त होकर आगे बढ़ जाये तो निर्यापकाचार्य उसे उपदेश का ऐसा कवच दे जो परीषहों का निवारण कर सके, व्याधि और वेदना को दूर कर सके, निरासक्ति को दूर कर रत्नत्रय के प्रति राग पैदा कर सके। आचार्य शिवार्य ने लगभग 200 गाथाओं में उपमा और उत्प्रेक्षा के साथ इस प्रकार के उपदेश की रूपरेखा दी है (1508-1517)।
(6) समभाव - कवच से साधक संक्लेश परिणामों को दूरकर समभाव में प्रतिष्ठित होता है (1518-1681)।
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