Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 31
________________ जैनविद्या 25 डॉ. हीरालाल जैन 'भगवती आराधना' का रचनाकाल ईसा की द्वितीय-तृतीय शती मानते हैं। भगवती आराधना (दिल्ली से प्रकाशित) में 2179 गाथाएँ और चालीस अधिकार हैं। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप-रूप चार आराधनाओं का कथन किया है। प्रकारान्तर से, इस ग्रन्थ में आराध्य (रत्नत्रय), आराधक (भव्य जीव), आराधना (रत्नत्रय की प्राप्ति के उपाय) और आराधना का फल (अभ्युदय और मोक्ष) का सम्यक् वर्णन किया है। स्वसमय-परसमय, आगम-सिद्धान्त, नीति, सदाचार, तत्कालीन प्रचलित परम्परा, भावना, समाधिमरण, मुनिचर्या आदि पर काव्यात्मकता के साथ हृदयग्राही वर्णन भगवती आराधना में उपलब्ध है। इसकी लोकप्रियता का आभास ग्रंथ की टीकाओं, विवृत्तियों और वचनिकाओं से सहज होता है। अपराजितसूरि की विजयोदयी टीका (सातवीं शताब्दी), पं. आशाधर की 'मूलाराधनादर्पण' टीका, प्रभाचन्द्रजी की आराधना. पंजिका', शिवजित अरुण की 'भावार्थ दीपिका' नामक टीकाएँ एवं पं. सदासुखदासजी की 'भगवती आराधना वचनिका' (हिन्दी टीका) उपलब्ध हैं। कतिपय भ्रांत धारणाओं के कारण सर्वश्री पं. नाथूराम प्रेमी, प्रो. हीरालाल जैन, डॉ. श्रीमती कुसुम पटोरिया, श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय, डॉ. सागरमल जैन ने भगवती आराधना और उसकी विजयोदयी टीका को यापनीय मत का ग्रंथ सिद्ध किया है। प्रो. डॉ. रतनचन्द्र जैन ने अपनी कालजयी कृति 'जैन परम्परा और यापनीय संघ (तीन खण्ड)' में समस्त भ्रांतियों और तथ्यों की सूक्ष्म विवेचना कर भगवती आराधना और उसकी टीकाओं को दिगम्बर परम्परा का सिद्ध कर दिगम्बर जैन साहित्य का अपूर्व उपकार किया है। बारह भावना आचार्य शिवकोटि ने (भगवती आराधना में) धर्मध्यान के चार भेद अर्थात् आज्ञाविचय, अपायविचय, विपायविचय और संस्थानविचय में से संस्थानविचय धर्मध्यान के अंतर्गत 'द्वादश भावनाओं' के चिन्तवन का निर्देश दिया है। आपने ध्यान अधिकार में गाथा क्र. 1724 से 1881 तक 157 गाथाओं में द्वादश भावनाओं का सूक्ष्म और हृदयग्राही वर्णन किया है। ये भावनाएँ संसार-दःख से भयभीत साधक को वैराग्य की ओर प्रेरित करती हैं। वैराग्य भाव से भावित साधक संसार, शरीर और भोगों से निवृत्त होकर स्वभावरूप दर्शन-ज्ञान-चारित्र में प्रवृत्त होने

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