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जैनविद्या 25
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आराधना करने से ज्ञान, दर्शन और तप ये तीनों आराधनाएँ भी हो जाती हैं।
( गाथा 12 )
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नेत्रों से देखने का सार सर्प, कण्टक, खड्डे आदि दोष निवारण कर चलना है। नेत्रों से देखकर भी कोई पुरुष खड्डे में पड़े तो उसके नेत्र निरर्थक हैं। वैसे ही जीव के ज्ञान - दर्शन नेत्र हैं। उन ज्ञान - दर्शन रूपी नेत्रों के होते हुए भी यदि कोई अचारित्ररूप खड्डे में पड़े अर्थात् चारित्र न पाले तो उसके ज्ञानदर्शन किस काम के ? अर्थात् ऐसी दशा में ज्ञान दर्शन निरर्थक हैं। अयथार्थ फलप्रदायी है। ( गाथा 13 )
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आचार्य कुन्दकुन्द का षट् पाहुड़ में चारित्र - विषयक सन्देश है चारित्त - समारूढ़ो अप्पासु परं ण ईह ए णाणी । पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ।। 43।। चा.पा.
चारित्र में आरूढ़ ज्ञानी आत्मा, आत्मस्वरूप को छोड़कर इष्ट वनिता
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माला आदि सांसारिक पदार्थों की वांछा नहीं करते। वे मानव शीघ्र ही अनुप
सुख को प्राप्त करते हैं । हे आत्मन् ! तू ऐसा निश्चय से जान ।
चारित्तं खलु धम्मो संयमः खलु चारित्तम् ।
चारित्र की आराधना से ही मुक्ति संभव है।
चारित्ररहित ज्ञान निष्फल है। जिन तीर्थंकरों ने ज्ञान का फल संयम कहा है, उन्हें भक्ति-भावों से नमस्कार है ।
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* यह लेख प्रकाशचंद शीलचंद जैन जौहरी, 1266, चाँदनी चौक, दिल्ली से प्रकाशित संस्करण पर आधारित है।
1- 2. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान : डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 106 3. जैन साहित्य और इतिहास : जुगलकिशोर मुख्तार, पृ. 485