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जैनविद्या 25
आचार्य शिवार्य ने 17 मरण - प्रकारों में से पाँच प्रकारों का विशेष उल्लेख किया है 1. पण्डित - पण्डितमरण, 2. पण्डितमरण, 3. बालपण्डितमरण, 4. बालमरण और 5. बालबालमरण ( गाथा 26 ) |
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बालमरण और बालबालमरण इन मरणों में बालमरण सर्वाधिक निन्दनीय है। जो आग, शस्त्र, विषपान, पर्वत से पतन, रस्सी बंधन, भूख-प्यास, जीभादि उखाड़ने आदि के द्वारा मरण किया जाता है वह बालमरण है। ऐसे जीव अत्यन्त भोगासक्त, अज्ञानी और विषय - लोलुपी होते हैं और वे इच्छा पूर्ति न होने के कारण निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। यह आत्महत्या साधारणतः निदानपूर्वक होती है जिसमें आसक्ति के साथ यह इच्छा की जाती है कि आगाम काल में यही होना चाहिए। यह निदान प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत होता है। यह मरण आर्त और रौद्रध्यानपूर्वक होता है। इसे 'वसट्टमरण' कहा जाता है। अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बालमरण है और मिथ्यादृष्टि का मरण बालबालमरण है । ( गाथा 29 )
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इसके बाद पण्डितमरण के प्रसंग में सम्यक्त्व की आराधना का वर्णन किया गया है और वहाँ 'वर्णजनन' शब्द का नया प्रयोग महत्ता प्रदर्शित करने के अर्थ में हुआ है। (गाथा 45-46 )
पण्डितमरण
1. भक्त प्रत्याख्यान
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प्रशस्त मरणों में पण्डितमरण के तीन भेदों का उल्लेख आता है प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्त प्रत्याख्यान । इनमें भक्त प्रत्याख्यान विशेष आकलन है। इसके दो भेद हैं सविचार और अविचार । जब मरण सहसा न आया हो तो पूरे साहस और धैर्य के साथ उसका सामना करना सविचार भक्त प्रत्याख्यान है और जब वह सहसा आ जाता है और साहस - धैर्य नहीं रहता तो वह अविचार भक्त प्रत्याख्यान है (गाथा 64 ) । इसकी तैयारी इस प्रकार की जाती है
(i) सविचार भक्त प्रत्याख्यान
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सविचार भक्त प्रत्याख्यान की प्राथमिक तैयारी में साधक समता और शुभोपयोग के साथ मरण की तैयारी करता है । भयंकर दुर्भिक्ष हो, घनघोर जंगल में पथ अज्ञात हो जाए, इन्द्रियाँ बिलकुल दुर्बल हो गई हों, असह्य और असाध्य रोग से इतना पीड़ित हो कि आध्यात्मिक साधना का चलना असंभव-सा हो तब 'भक्त प्रत्याख्यान मरण' स्वीकार किया जाता है (गाथा 71 - 76 ) | आचार्य समन्तभद्र