Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 47
________________ जैनविद्या 25 अप्पपसंसं परिहरह अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।361। सो चेव हवदि दोसा जं सो थोएदि अप्पाणं।362। संतो हि गुणा अकहिंतयस्स पुरिसस्स ण वि य णस्संति। अकहितस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो।363। सो चेव होदि हु गुणो जं अप्पाणं ण थोएइ।366। वायाए ज कहणं गुणाण तं णासणं हवे तेसिं। होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुब्भासणं तेसिं।367। वायाए अकहेंता सुजणे विकहेंतया य चरिदेहि। सगुणे पुरिसाण पुरिसा होंति उवरीव लोगम्मि।368। - आचार्य शिवार्य भगवती आराधना - अपनी प्रशंसा करना सदा के लिए छोड़ दो। अपने यश को नष्ट मत करो. क्योंकि समीचीन गुणों के कारण फैला हुआ यश भी अपनी प्रशंसा करने से नष्ट हो जाता है। जो अपनी प्रशंसा करता है वह लोगों में तृण के समान लघु होता है।361। जो अपनी प्रशंसा करता है यही उसका सबसे बड़ा दोष है।362। जो पुरुष स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करते उनके गुण नष्ट नहीं होते। ऐसा भी नहीं है कि अपने गुण न कहने से उनकी प्रख्याति नहीं होती! सूर्य अपने गुणों को स्वयं नहीं कहता फिर भी उसका प्रताप जगत में प्रसिद्ध है।363। जो अपनी प्रशंसा नहीं करता यही उसका सबसे बड़ा गुण है।3661 वचन से गुणों को कहना उनका नाश करना है, आचरण से गुणों का कथन उनको प्रकट करना है, प्रकाशित करना है।367। जो वचन से न कहकर अपने आचरण से अपने गुणों को कहते हैं वे पुरुष लोक में सब पुरुषों से ऊपर होते हैं।368। अनु. - पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री

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