Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 49
________________ जैनविद्या 25 . भगवती आराधना' की गाथाओं में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप', इन चार आराधनाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। इनका आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में भी अनेकबार उल्लेख आया है। मुनियों की अनेक साधनाओं एवं वृत्तियों का वर्णन है, जिनका परवर्ती आचार्यों ने भी उल्लेख किया है। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल, इन चार ध्यानों का विशद वर्णन मिलता है। मूलाचार और भगवती आराधना में एकसमान गाथा के द्वारा पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन से निवृत्ति का निर्देश है - तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ति। __ मू.आ. 295, भ.आ. 1192 किन्तु उसे छठा महाव्रत नहीं कहा है। वैसे रात्रिभोजन-त्याग व्रत का अहिंसा व्रत में अन्तर्भाव हो जाता है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में दस स्थिति कल्पों का वर्णन करते हुए छठे व्रत नामक स्थिति कल्प के वर्णन में लिखा है कि उन पाँच व्रतों के पालने के लिए 'रात्रिभोजन-विरमण' नामक छठा व्रत कहा गया है तथा यह भी लिखा है कि आद्य और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में पाँच व्रतों के साथ 'रात्रिभोजन-विरमण' छठा व्रत होता है। भगवती आराधना की वैराग्यपरक गाथाएँ 'तिलोयपण्णत्ति' में तीर्थंकरों के वैराग्य प्रकरण में मिलती हैं। गाथा सं. 2069 में एक गणी को परीषह सहनपूर्वक समाधिमरण करने का निर्देश है। भगवती आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने 'गणि' का अर्थ यतिवृषभाचार्य किया है। अतः भगवती आराधना' तिलोयपण्णति से भी प्राचीन है। आचार्य शिवार्य या शिवकोटि के ग्रन्थ भगवती आराधना पर प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी में उपलब्ध टीकाओं में विक्रम की 8वीं शताब्दी के विद्वान अपराजित सूरिकृत 'विजयोदया टीका', 11वीं शताब्दी के आचार्य अमितगतिकृत 'संस्कृत-आराधना' और 13वीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य पण्डित आशाधर विरचित 'मूलाराधना दर्पण' विशेष प्रसिद्ध है।' जैन धर्म-दर्शन में समाधिपूर्वक मरण की सर्वोपरि विशेषता है। मुनि हो या श्रावक, सबका लक्ष्य समाधिपूर्वक मरण की ओर रहता है। मुनि और उत्कृष्ट श्रावक अपनी नित्य भक्ति में समाधिमरणार्थ भावना भाते हैं। इस भक्ति भावना में मानवीय जीवन का इहलोक और परलोक अभ्युदय एवं निःश्रेयस निर्धारित है। आचार्य शिवार्य के भगवती आराधना ग्रंथ में समाधिपूर्वक मरण की पर्याप्त शिक्षा

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