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जैनविद्या 25
आराधक जब सल्लेखना लेता है तो वह उसमें बड़े आदर, प्रेम और श्रद्धा के साथ संलग्न रहता है तथा उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्मसाधना में गतिशील रहता है। उसके इस महान पावन कार्य को सफल बनाने और उसे पवित्र पथ से विचलित न होने देने के लिए समाधिमरण करानेवाले अनुभवी मुनि (निर्यापकाचार्य) उसकी सल्लेखना में सम्पूर्ण शक्ति एवं आदर के साथ उसे सहायता पहुँचाते हैं और समाधिमरण में सुस्थिर करते हैं। वे सदैव उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश देते हुए शरीर और संसार की असारता एवं क्षणभंगुरता दिखलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न हो जिन्हें वह हेय समझकर छोड़ चुका है। आचार्य शिवार्य ने भगवती आराधना में समाधिमरण करानेवाले इन निर्यापक मुनियों का प्रभावी वर्णन किया है।
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संवेग्गावज्जभीरुणो पच्चक्खाणम्मि
पियधम्मा दढधम्मा छंदहू पच्चइया कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणज्जदा गीदत्था भयवंतो अडदालीसं तु णिज्जावया य दोणि वि होंति जहणणेण काल - संसयणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते । । 678 ।।
अर्थात् वे निर्यापक मुनि धर्मप्रिय, दृढ़श्रद्धानी, पापभीरू, परिषह - जेता, देशकाल - ज्ञाता, योग्यायोग्य विचारक, न्यायमार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्व - विवेकी, विश्वासी और परम उपकारी होते हैं। उनकी संख्या अधिकतम 48 और न्यूनतम 2 होती है।
धीरा । विदण्डू।।652।। सुद-रहस्सा । णिज्जवया ।।653।।
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आचार्य शिवार्य ने आराधक के सल्लेखना लेने, उसमें सहायक होने, आहारऔषध, स्थानादि देने तथा आदर भक्ति प्रकट करनेवालों को पुण्यशाली बतलाते हुए उनकी प्रशंसा की है (गाथा 1995-2005)
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ते सूरा भयवंता,
आइच्चइदूण संघ - मज्झमि ।
आराधणा- पडायं च उप्पयारा धिदा जेहिं । । 2010।।
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वे मुनि धन्य हैं, जिन्होंने संघ के मध्य जाकर समाधिमरण ग्रहणकर चार प्रकार की आराधनारूप पताका को ग्रहण किया है। वे शूरवीर और पूज्य हैं।
ते धण्णा ते णाणी, लद्धो लाभो य तेहि सव्वेहिं ।
आराधणा भयवदा, पडिवण्णा जेहि संपुण्णा ।।2011 ।।
वे धन्य और ज्ञानी हैं, जिन्होंने भगवती आराधना को सम्पूर्ण किया
है और उन्हें जो प्राप्त करने योग्य था उसे प्राप्त कर लिया।