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जैनविद्या 25
आचार्य शिवकोटि ने भगवती आराधना के भावना अधिकार में 5-5 उत्तम और कुत्सित भावनाओं का वर्णन किया है जो मूलतः पठनीय और दिशाबोधक हैं। ‘भाव्यते इति भावना, भावना ध्यानाभ्यास क्रियेत्यर्थः ' अर्थात् ध्यान के अभ्यास की क्रिया को भावना कहते हैं। धर्म-मार्ग में धर्म-साधन के रूप में जीवन के रूपांतरण, संयम की साधना और आत्मा की आराधना में वैराग्य एवं अन्य भावनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक के आठवें अध्याय में उपदेश के रूप में घोषित किया है कि 'निश्चयसहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता है, उसके उपदेश से तत्वज्ञान के अभ्यास द्वारा व वैराग्य भावना द्वारा परिणाम सुधारे वहाँ परिणामों के अनुसार बाह्य क्रिया भी सुधर जाती है (पृ. 279 ) ' । जिन भव्य महानुभावों को शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति की आंतरिक भावना हो उन्हें आचार्यदेव द्वारा वर्णित उक्त बारह भावनाओं का निरंतर चिंतंवन अवश्य करना चाहिए ।
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बी - 369, ओ. पी. एम. कॉलोनी,
अमलाई पेपर मिल
जिला शहडोल (म. प्र. )
* यह लेख प्रकाशचंद शीलचंद जैन जौहरी, 1266, चाँदनी चौक, दिल्ली - 6 (वर्ष 1992 ) से प्रकाशित संस्करण पर आधारित है।