Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ जैनविद्या 25 31 को धारण किया है, ऐसा संयमीरूप योद्धा संयमरूप रणभूमि में कर्मरूप शत्रु को ध्यानादि तपोमय बाण से जीतकर अनुपमेय मोक्ष के राज्य की लक्ष्मी को प्राप्त करता है। इस प्रकार बारह गाथाओं (1853-1864) में निर्जरानुप्रेक्षा का वर्णन किया। 11. धर्म भावना जो जीव मोक्षपर्यन्त कल्याण की परम्परा का पात्र है उसे ही सुखदायक उदार धर्म प्राप्त होता है। जो निर्वाण के अयोग्य है वह उत्तम धर्म को धारण नहीं कर सकता। जिसके कर्म की स्थिति घट जाए और पाप प्रकृतियों का रस मन्द रह जाता है, उसी का भाव धर्म धारण करने का होता है। धर्म से पूज्यता, विश्वसनीयता और यश मिलता है। धर्म मन को आनंदित करनेवाला और सुख देनेवाला है। मनुष्य और देवलोक के समस्त कल्याण और उसके बाद निर्वाण के श्रेष्ठ अविनाशी सुख धर्म से मिलते हैं। जो जीव इस लोक और परलोक में ख्याति-प्रसिद्धि-लाभ, पूजादिक की आशा किये बिना निर्मल मन से दृढ़तापूर्वक जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित सत्यार्थ धर्म को धारण करते हैं, वे जगत में धन्य हैं। धर्मविहीन पुरुषों से जगत भरा है, महात्मा पुरुष बिरले हैं, वे धन्य हैं। विषय-रूप जंगल में इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ों पर चिरकाल से उन्मार्ग में विहार करते हुए वे पुरुष धन्य हैं जिन्होंने इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ों से उतरकर जिनेन्द्र भगवान द्वारा दिखाये निर्वाण के मार्ग का अनुसरण किया है। जगत के मध्य राग-द्वेष की क्रीड़ा करते-करते स्वादहीन वीतराग धर्म में रति करना अत्यन्त दुर्लभ है। इन्द्रिय-विषयों में रमकर मलिन कषाययुक्त होकर और विषयों में सुखरूप आस्वाद कर, रमकर संसारी जीवों की विषय-रहित वीतराग धर्म में रति होना अत्यंत दुर्लभ है। ऐसे निर्दोष चारित्र को धारण करनेवाले मनुष्य का जन्म सफल है, जो संसार के दुःख को करनेवाले कर्म के आगमन को रोकने में समर्थ है। ऐसे मनुष्य में धर्मानुराग, कषायों की मन्दता, वैराग्यभाव, प्राणियों के प्रति दया और इन्द्रियों के दमन के भाव जैसे-जैसे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वह अतिशय कर निर्वाण के समीप हो जाता है। धर्म-चक्र का स्वरूप - सम्मइंसण तुम्बं दुवालसंगारयं जिणिंदाणं। वयणेमियं जगे जयइ धम्मचक्कं तवोधारं।।1873।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106