Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 45
________________ जैनविद्या 25 32 अर्थ - जिसके सम्यग्दर्शन-रूप मध्य का तुम्ब (धुरा) है, आचारांगादिक द्वादश अंग जिसके आरा हैं, पंचमहाव्रतादिरूप जिसके नेमि हैं और तपरूप जिसकी धार है, ऐसा भगवान का धर्मचक्र कर्मरूप शत्रुओं को जीतकर परम विजय को प्राप्त करता है। इस प्रकार नौ गाथाओं (1865-1873) में धर्म भावना का वर्णन किया। 12. बोधिदुर्लभ भावना कर्मों से लिप्त संसारी जीव को दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप धर्म-बोधि, रत्नत्रय की पूर्णता और आराधना-सहित मरण होना दुर्लभ है। जिस प्रकार लवण समुद्र की पूर्व दिशा क्षेप्या जूडा और पश्चिम दिशा स्थित क्षेपीसमिला का संयोग होना दर्लभ है उसी प्रकार संसार में जीव को मनुष्यपना दुर्लभ है। इस लोक में मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, प्रमाद आदि अशुभ भावों की बहुलता है, ये भाव निरंतर बहुत बार बहुत प्रवर्तते हैं। मनुष्यों को छोड़ अन्य जीवों की बहुलता है। चौरासी लाख योनियों और 199.5 लाख कुल कोड़ी हैं जिसमें मनुष्य योनि दुर्लभ है। जीव अनन्तानन्त काल निगोद में ही रहता है। कदाचित् मनुष्यपना मिले तो उत्तम देश में उत्पन्न होना दुर्लभ है। उत्तम देश, उत्तम कुल, रूप, आरोग्य, दीर्घायु, उज्ज्वल बुद्धि, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण आदि मिलना उत्तरोत्तर अति दुर्लभ है। फिर उत्तम देश-कुल मिल जाए तब जिनशासन में बोधि और दीक्षा के सन्मुख बुद्धि होना दुर्लभ है। चारित्र मोह के उदय में रत्नत्रय मार्ग में प्रवर्तन करना दुर्लभ है। बोधिरूप रत्नत्रय प्राप्त होना दुर्लभ है। कदाचित् बोध को प्राप्त होकर प्रमाद से बोधि छूटने पर रत्नगिरि के शिखर से नीचे गिर जाता है। जिस प्रकार अंधकार के समय समुद्र में गिरा रत्न पाना दुर्लभ है उसी प्रकार संसार में भ्रमण करते हुए जीव को नष्ट हुआ बोधिरूप रत्नत्रय पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है। जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान में जो जीव धर्म-प्रबुद्ध होते दिखे वे धन्य हैं और जो जीव भावपूर्वक धर्म को प्राप्त करने हेतु उद्यम रूप होते हैं, वे धन्य हैं। इस प्रकार बोधिदुर्लभ भावना का आठ गाथाओं (1874-1881) में वर्णन किया। द्वादश भावना का प्रकरण समेटते हुए आचार्य कहते हैं - इय आलंबण मणुपेहाओ धम्मस्स होंति ज्झाणस्स। ज्झायंतो ण वि णस्सदि ज्झाणे आलंबणेहिं मुणी।।1882।। अर्थ - ये बारह भावना धर्म-ध्यान का आलंबन हैं। ध्यान करता हुआ मुनि इन भावनाओं का आलंबन करने से ध्यान से च्युत नहीं होता।

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