Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 35
________________ जैनविद्या 25 3. एकत्व भावना जीव स्वयं पाप-पुण्य करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है। कोई दूसरा उसमें सहायक नहीं होता। इसी भावना को एकत्व भावना कहते हैं। जीव कुटुम्ब और शरीर के पालन हेतु जो पाप कर्म करता है, बहु आरम्भपरिग्रह में लीन होकर पाप बाँधता है उसका फल नरकादिक कुगति में स्वयं एकाकी महादुःख भोगता है। कर्म के उदय से रोगादिक की वेदना होती है उसे मित्र कुटुम्बादिक प्रत्यक्ष देखते हैं, किन्तु किंचित् भी उसे दर नहीं कर सकते। परलोक में नरकादिक के फल को एकाकी भोगता है। भोग भोगने में स्त्री, पुत्र-मित्रादि सहयोगी होते हैं, किन्तु आयु के अंत में मरण के समय कोई सहायी नहीं होता और अशुभ कर्म के फल भोगने में कोई सहायी नहीं होता। परलोक में गमन करनेवाले जीव के स्त्री-पुत्र-मित्र, धन, देहादिक कोई भी अपना नहीं होता है, यद्यपि प्रत्यक्ष में वे चाहते हैं, फिर भी वे निरर्थक हैं। देह के सम्बन्धी इस देह के नाश होते ही समस्त सम्बन्धों से छूट जाते हैं। परलोक में कोई भी सम्बन्ध करने के लिए नहीं जावेंगे। महल, मकान, राज्य, सम्पदा आदि का सम्बन्ध इस लोक में ही है। जीव पुण्य-पाप लिये परलोक में एकाकी गमन करेगा। इसलिए सम्बन्धियों के प्रति ममता कर परलोक बिगाड़ना महान अनर्थ है। इस जीव ने सम्यक्त्व, चारित्र, श्रुतज्ञान का अभ्यास कर जो धर्म किया है, वही परलोक में जीव के गुणकारक सहायी होता है। धर्म बिना कोई सहायी-हितु (उपकारी) नहीं। धर्म की सहायता से ही स्वर्ग के महर्द्धिक देव, अहमिन्द्र, इन्द्र, तीर्थंकर, चक्री, सुन्दर कुल, जाति, रूप, बल, विद्या, ऐश्वर्य आदि मिलते हैं। जिस प्रकार बंदीगृह में बंधन में बँधे पुरुष को बंधन में राग नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानवन्त पुरुष के देह में राग नहीं है। और संसार में अनंत बार मरण करनेवाले तथा महाभय के कारण, विषसमान धन-सम्पदा आदि में ज्ञानी जीव के राग नहीं होता। जीव अपने भावों से उत्पन्न कर्मों का चतुर्गति-रूप फल एकाकी ही भोगता है। संयोगवियोग, उत्पत्ति-मरण, सुख-दुःख आदि में इस जीव का कोई मित्र नहीं है। अपना किया आप स्वयं अकेला भोगता है। __ इसलिए हे आत्मन, अपना एकाकीपन देखो, अनुभव करो। मोह में चेतनअचेतन पदार्थों में अपनी एकता मानी है, इस भूल से आत्मा में दृढ़ कर्म-बंध होता है। जिस काल भ्रमरहित हो एकाकीपन का अनुभव करेगा तब कर्म-बंध का अभाव

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