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जैनविद्या 25
बात ज्ञात हुई। शास्त्रज्ञ-पण्डित भी अभिमान और पाप के वशीभूत मर कर श्वान या चांडाल हो जाता है।
संसारी जीव लाभांतराय कर्म के उदय से दरिद्री, लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से बहत धनवान, अपयशकीर्ति के उदय से निन्दित और यशस्कीर्ति के उदय से जगत में विख्यात हो जाता है। असातावेदनीय कर्म के उदय से व्यसन, कष्ट
और दुःख भोगता है; सातावेदनीय के उदय से देव-मनुष्य गति का सुख भोगता है। वेद के उदय से बारंबार त्रि-वेद को प्राप्त करता है। इस संसार में पुण्यहीन जीव अपराध नहीं करने पर भी अपराधी हो जाता है। और पुण्यवान प्रत्यक्ष में अपराधी होने पर भी जगत में निरपराधी जैसा रहता है। कृष्ण और शुक्ल पक्ष में चंदा की चाँदनी समान होते हुए कृष्ण पक्ष अप्रियकर और शुक्ल पक्ष प्रियकर होता है। वैसे ही जीव का आचरण, क्रिया अपकार-उपकार समान होने पर कोई द्वेष-योग्य अप्रिय होता है, कोई राग-योग्य प्रियकर होता है। पुण्य-पाप के उदय में कर्त्तव्य नहीं चलता, कर्म के उपशम में सफलता मिलती है। इस प्रकार जो जीव संसार, शरीर
और भोग से विरक्त होकर लोक के स्वभाव में राग-द्वेष छोड़कर आत्मस्वभाव साधते हैं वे ज्ञानवान, सामर्थ्यवान धन्य हैं। मनुष्यलोक बिजलीवत चंचल, दुर्बल, व्याधियुक्त, दुःखरूप और मृत्यु से ताड़ित है, ऐसे लोक में ज्ञानी कैसे रह सकता है, कैसे रम सकता है? ऐसे लोक-स्वभाव का चितवन पंद्रह गाथाओं (1805-1819) में किया है। 7. अशुचि भावना
अर्थ-धनादिक और काम-पंचइन्द्रियों के विषय अशुभ हैं और जीव का अकल्याण करनेवाले हैं। देह में लालसा भी अशुभ है - अनन्तानन्त जन्म-मरण कराती है। केवल धर्म समस्त सुख का करनेवाला है और शुभ समस्त कल्याण का बीज है। इस लोक में काम, क्रोध, मद, मोह, भय, मायाचार, ईर्ष्या, बहुआरम्भपरिग्रह, हिंसादि समस्त दोष और कामादिक मर्यादिक सर्व दोष धन से होते हैं। इस लोक सम्बन्धी दोष और परलोक सम्बन्धी दुर्गति धन से ही मिलती है। महाअनर्थ का मूल है। वैर, कलह, दुर्ध्यान, ममता धन से ही होती है। धन मुक्ति के दृढ़ अर्गल है। धन से मुक्ति बहुत दूर रहती है। मुक्ति वीतरागता से होती है। काम-क्रोध दुर्गन्धरूप देह-कुटी से उत्पन्न होता है, जगत में निंदा कराता है। परलोक में नरकादिक दुर्गति में ले जाता है। अनर्थकारी होने से काम-भोग अशुभरूप हैं। देह