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जैनविद्या 25
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महादुर्गन्धमय मांस-रुधिर-मल-मूत्ररूप है अतः ग्लानि करने योग्य है, अशुभ रूप है। मल के घड़े-जैसी अशुचि देह जलादिक से शुद्ध नहीं होती। देह से जलादि अपवित्र हो जाता है। केवल एक धर्म ही पवित्र है। धर्म के कारण देवों को नमस्कार किया जाता है। धर्म के प्रभाव से साधु के जल्लौषधादिक ऋद्धि प्रकट होती है। महान अशुचि मलिन देह को धारण कर जो तपश्चरणादिक से परमं धर्म का सेवन करते हैं, उनको अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्रकट होती हैं। अतः अपावन देह को धर्म सेवन में लगाना ही अपना कल्याण करना है। इस प्रकार आठ गाथाओं (18201827) में अशुचि भावना का वर्णन किया। 8. आस्रव भावना
संसार-समुद्र में परिभ्रमण का कारण कर्मों का आस्रव है। इस संसार-समुद्र में बहुत दोषरूप लहरें उठती हैं। जैसे समुद्र के मध्य छिद्रयुक्त नाव में जल प्रवेश करता है, उसी प्रकार संसार-समुद्र में संवररहित पुरुष के कर्मरूप जल प्रवेश करता है। जैसे चिकनाईयुक्त शरीर में धूल चिपकती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व-असंयम कषाय-रूप परिणाम होने पर कर्म होने योग्य पुद्गल स्कन्ध आत्मा में एक क्षेत्रावगाह रूप होकर प्रवेश करते हैं, सो आस्रव है। यह 343 घन रज्जूप्रमाण समस्त लोक में दृश्य-अदृश्य ऐसे सूक्ष्म-बादर पुद्गल द्रव्य ऊपर-नीचे मध्य में ठसाठस भरे हैं। लोकाकाश में एक प्रदेश भी पुद्गल द्रव्य बिना नहीं है। इसमें कर्म होने योग्य अनन्तानंत पुद्गल परमाणु भरा है। जिस प्रकार जल में पड़ा तप्त लोहे का गोला चारों ओर से जल खींचता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि से संसारी आत्मा सर्व ओर से कर्म योग्य पुद्गल ग्रहण करता है जो कार्माण समय-प्रबद्ध ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मरूप परिणमित हो जाता है।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं। कर्मवर्गणा आने के द्वार रूप मिथ्यात्व 5, अविरति 12, कषाय 25, और योग 15, ये सत्तावन आस्रव हैं। अरहन्त भगवान द्वारा कहा गया सप्ततत्त्वादिक अर्थ में विमोह या अश्रद्धान सो मिथ्यात्व है। हिंसादिक पाँच पाप में प्रवृत्ति अविरमण है। इसी को असंयम कहते हैं। छहकाय के जीवों की अदया और पंचइन्द्रिय व मन का अवशपना, ये बारह अविरति हैं। पंचपाप के त्यागी के बारह अविरति का अभाव है और क्रोधादि चार कषाय राग-द्वेषमय हैं। अशुचि और अनुराग के अयोग्य देह में ज्ञाता मनुष्य को रागभाव कैसे आ सकता है? अज्ञानी अशुचि और असार देह में रंजायमान होता है।