________________
जैनविद्या 25
यह जीव औदारिक, वैक्रियक, तैजस और कार्माण शरीर के बोझ से भरा है। जिस कारण आत्मा का केवलज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य प्रकट नहीं हो पा रहा है। अंधे व्यक्ति के समान मोहान्धकार में कर्म से दुःखी जीव परिभ्रमण कर रहा है। दुःख के इलाज और सुख की अभिलाषा में जीव मोह में हिंसादिक दोष ही करता है। दुःख दूर करने में समर्थ महाव्रत और अणुव्रत आदि का निरादर करता हुआ हिंसा, असत्य, परस्त्रीसेवन, परधन का अपहरण, बहुआरम्भ-परिग्रह, अभक्ष्य भक्षण, अन्याय आदि से नरकादिक में बहुत काल पर्यंत घोर दुःख भोगता है। मिथ्यात्व के उदय से दुःख के कारणों को सुख का कारण मानकर अंगीकार करता है। हिंसादि दोष से नवीन कर्मबंध होता है, जब वे उदय में आते हैं तब पुनः कर्मबंध होता है। इस प्रकार पुनः-पुनः नवीन-नवीन कर्मबंध उदय की अंतहीन क्रिया चलती है और जीव बहुत दुःखरूप भ्रमण करता रहता है। इस प्रकार अट्ठाईस गाथाओं (1777-1804) में संसारानुप्रेक्षा का वर्णन किया। 6. लोकानुप्रेक्षा
___ संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव का समस्त जीवों से अनेकबार संबंध प्राप्त हुआ है। माता ही पत्नी बनी और पत्नी माता बनी है। इस प्रकार सभी संबंध निरंतर पलटे हैं। एक ही पर्याय में धनदेव नाम के वणिक पुत्र की माता बसंततिलका उसकी पत्नी बन गयी। और एक ही पेट से जन्मी कमला नाम की बहिन पत्नी हो गयी। एक ही जन्म में ऐसा अपवाद हुआ तब अनेक जन्मों की कथा कौन कहे। पापकर्म के उदय आने पर राजा दास हो जाता है और दास राजा हो जाता है। इस संसार में समस्त स्थान/पद बदलते रहते हैं। यह संसार पाप-पुण्य का चरित्र है। कुलवान विदेह देश का स्वामी सुभौम अशुभ कर्म के उदय से विष्टा के गृह में कीड़ा उत्पन्न हुआ। शुभ वर्ण-गंध-रूप का धारक महान ऋद्धि का देव मरकर महामलिन दुर्गंधयुक्त गर्भ स्थान में प्रवेश करता है। धिक्कार है संसार का निवास। जो अपने अति निकट के हैं वे लोक व परलोक में शत्रु हो जाते हैं। अपनी माता ही इसलोक-परलोक में अपने पुत्र का मांस खा जाती है। इससे अधिक अनर्थ और क्या हो? पूर्व का दुःख देनेवाला बैरी इस भव में स्नेहसहित बंधु हो जाता है। जगत में निजपना और शत्रुपना क्षणमात्र में राग-द्वेष के कारण पलट जाता है। सुदृष्टि नाम पुरुष ने वक्र नाम के सेवक का विमला नाम की स्त्री के निमित्त वध किया, वह अपने कर्मोदय से अपनी स्त्री के गर्भ में उत्पन्न हुआ। जाति स्मरण से उसे यह