Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 38
________________ जैनविद्या 25 जैसा दूसरी देह धारणकर अनन्तानंत काल से अनन्तानंत देह ग्रहण की है और त्यागी है। नट के समान अनेक संस्थान वर्ण रूप निरंतर ग्रहण करता-छोड़ता है। अनंत काल से 343 राजूप्रमाण लोक के समस्त प्रदेशों में अनन्त बार जन्म-मरण किया है। जीव ने अतीत काल में उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल के समस्त समय में अनन्त बार जन्म-मरण किया है। जन्म-मरणरहित कोई काल शेष नहीं रहा। जीव के मध्य के अष्ट प्रदेश के अतिरिक्त अन्य समस्त प्रदेशों में संकोच-विस्तार को प्राप्त होता है। जितने असंख्यातगुणे लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही जीव के कर्मबन्ध होने योग्य कषाय और अनुभाग के परिणामों के स्थान हैं, वहाँ गिरगिट के रंग जैसे समय-समय पर परिणाम पलटने पर नवीन-नवीन अध्यवसाय रूप परिणाम होते हैं। संसार में सर्वत्र सर्व स्थानों में निरंतर मरण भय है, एक पक्षी दूसरे को मारते हैं, जलचर अन्य जलचर को मारते हैं और दुष्ट मनुष्य मनुष्यों-तिर्यंचों को मारते हैं। . अज्ञानी जीव क्षुधा, तृषा, काम, कोपादि कर दुःखी हो महादुःख का कारण संसाररूप सर्प के मुख में प्रवेश करता है। मिथ्यात्व विषय-कषाय में प्रवेश करता है वह संसाररूप सर्प का मुख है, संसार में निगोद प्रधान है। निगोद में दर्शन-ज्ञान आदिक भाव प्राणों का लोप कर जड़रूप हुआ अनन्तानंत काल व्यतीत करता है। चतुर्गति के सर्वदुःख उस जीव ने अनन्त बार भोगे हैं। अनन्त बार दुःख पाकर किसी प्रकार इन्द्रियजनित सुख भी एक बार प्राप्त किया है। अनन्त पर्यायों में दुःख प्राप्त कर किसी एकबार सुख भी प्राप्त किया है, किन्तु सम्यग्दर्शन धारणकर गणधर, कल्पेन्द्र, तीर्थंकरादि के पद कभी धारण नहीं किये। इस संसार में जीव अनेकबार वचन-मन-कर्ण आदि इन्द्रियों के संयोगरहित विकल हुआ है। रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग से रहित होकर चिरकाल से अनन्तकाल पर्यंत संसार-वन में भ्रमण कर रहा है। पृथ्वी आदि पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय आदि में शक्तिहीन हुआ हजारों दुःख प्राप्तकर अनन्तकाल पर्यंत स्थावर काय में भ्रमण करता है। बहुत प्रकार के शरीर और मन से उत्पन्न दुःख में पाप से मलिन संसाररूपी नदी में अज्ञानी होकर प्रसन्न हुआ है। ज्ञान-नेत्र से रहित हो, चिरकाल तक यह संसार में भ्रमण करता है। यह जीव संसारचक्र में चढ़कर परवश हो भ्रमण कर रहा है, जहाँ से निकलना बहुत कठिन है। संसार चक्र का स्वरूप कैसा है? विषयाभिलाषारूप दृढ़ आरा, नरकादि कुयोनियों की पूठी, सुख-दुःखरूप दृढ़ कीला, अज्ञानभाव रूप तुम्ब, कषायरूप दृढ़ पट्टिका के बन्ध, जन्मांतरों के सहस्र रूप विस्तीर्ण परिभ्रमण पथ और मोहरूप अत्यंत चंचल वेग है। इस प्रकार संसार चक्र में जीव घूम रहा है।

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