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जैनविद्या 25
वह क्षणमात्र में शत्रु हो जाता है। इसप्रकार, संसार में कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं होता, उपकार - अपकार की अपेक्षा मित्रपना या शत्रुपना होता है । कृतघ्न व्यक्ति निंद्य हुआ उपकारी का उपकार भी नहीं मानता। वस्तुत्व से कोई किसी का शत्रु - मित्र नहीं होता अतः किसी में राग-द्वेष नहीं करना ।
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जिसका हित / उपकार करे, वह उसका बान्धव है, और जिसका अहित करे, वह उसका शत्रु है, ऐसी जगत की प्रवृत्ति है। जो निज के मित्र - भाई -बांधव हैं, वे स्वर्ग - मोक्ष को प्राप्त करनेवाले धर्म में विघ्न पैदा करते हैं। हिंसादि पाँच पाप और असंयम कराते हैं। असंयम तीव्र दुःख देनेवाला और संसार में डुबोनेवाला है, अभक्ष्यभक्षण, रात्रि - भोजन, कुशील सेवन, बहु आरंभ - परिग्रह और लोभादि में प्रवृत्ति कराकर नरकादि में ले जाते हैं। इससे जो अपने हैं, वे शत्रु समान हैं। असंयम पैदा करनेवाले ऐसे पिता-पुत्र शत्रु - समान ही हैं। तथा जो सज्जन साधु पुरुष हैं वे असंयम का त्याग करा कर रत्नत्रय धर्म में उद्यम कराते हैं। अतः अनेक सुख के हेतुभूत ये वीतरागी साधु हैं। स्त्री-पुत्रादिक अनेक दुःख के कारणरूप शत्रु समान हैं अतः हे भव्य जीव ! तुम समस्त से अन्यपना चिंतवन करो। यह आत्मा शरीरादिक से भिन्न, विलक्षण है, आत्मा चिदानंदमय भिन्न है । आत्मा उपयोग - स - स्वरूप अतीन्द्रिय ज्ञानदर्शनमय है। इसलिये हे ज्ञानीजन ! जो जन्म-मरण में प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव में आता है ऐसे शरीर में अन्यपणा कैसे नहीं देखते हो? यह मूर्तिक अचेतन है। इससे अपने शुद्ध ज्ञानानंदमय आत्मा को शरीर से अन्य मानना सत्यार्थ है । स्त्री -पुत्र, धन-धान्य, ऐश्वर्य, जाति- कुल, ग्राम-नगर आदि से भिन्न अपने स्वरूप का चिंतन करो । संसार में पिता, पुत्र, माता, स्त्री अन्य - अन्य हैं। ऐसी अन्यत्व भावना करो । आचार्य ने चौदह गाथाओं ( 1763 - 1776 ) में अन्यत्व भावना को समझाया है। 5. संसार भावना
जिनेन्द्र भगवान के वचनों के अवलंबन से रहित और मिथ्यात्व से मोहित व्यक्ति संसाररूपी महावन में परिभ्रमण कर पुनः निगोद में चला जाता है। वहाँ से अनन्तकाल-पर्यन्त निकलना कठिन है। ज्ञानावरणादिक कर्मरूप भाँड - वस्तु, जिससे यह जीवरूप जहाज भरा है, वह चिरकाल से अनंतकाल - पर्यन्त भ्रमण करता है। यह संसार-समुद्र अति दुःखरूप जल से भरा है जिसमें अनंतकाय निगोद हैं, जिसमें द्रव्यक्षेत्र - काल-भाव व भवरूप पंचपरावर्तन चारों गतियों में हो रहा है। इस संसार - समुद्र में जीव अनंतकाल - पर्यन्त भ्रमण करता है। एकेन्द्रियादिक जीव की पाँच योनियाँ हैं जिन्हें संसारी जीव ने अनन्त बार पाया है। एक देह त्यागकर रहट की घंटी जंत्र