Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ जैनविद्या 25 में वृद्धि होती है और जलरेखा-जैसे पुरुष का रूप नष्ट हो जाता है। जीवों का तेज और बुद्धि इन्द्रधनुष और बिजली-जैसी प्रकट होकर नष्ट हो जाती है। जीव का बल-वीर्य भी जल की लहर-जैसा अस्थिर है। गृह, शैय्या, आसन, भाँड, आभरण आदि ओस के समान अस्थिर हैं, लोक में यशस्कीर्ति संध्या की लाली के समान विनाशीक है। मरण के भय से व्याप्त और कर्म के वश में पीड़ित संसारी प्राणी इस जगत को शरद ऋतु के मेघ-जैसा अनित्य कैसे नहीं जानेगा? अवश्य जानेगा। अतः इस अनित्य संसार में मनुष्य पर्याय प्राप्त कर दोनों लोक में कल्याणकारी उत्तम कार्य करो और धन-संपत्ति को पर के उपकार में लगाओ। यह लक्ष्मी किसी के पास नहीं रही, पूर्व जन्म के पुण्य से यह प्राप्त हुई है, उसमें अहंकार कर पाप-प्रवृत्ति करने पर दुर्गति होती है। अतः उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देकर तथा सप्त क्षेत्र में उपयोग कर उसे सफल करो। यौवन-रूप पाकर भी शीलवत दृढ़तापूर्वक पालो। बल पाकर क्षमा ग्रहण करो। ऐश्वर्य पाकर मदरहित विनयवान बनो। इस प्रकार बाह्य संयोग पाकर वैराग्य भावना भाना चाहिए। यही अनित्य भावना है जिसका वर्णन तेरह गाथाओं (1725-1737) में किया है। 2. अशरण भावना इस संसार में कोई भी शरण नहीं है। अशुभ कर्म की उदीरणा होने पर बुद्धि नष्ट हो जाती है। कर्म का उदय आने पर कोई उपाय काम नहीं आता, अमृत भी वैरी-जैसा हो जाता है, बुद्धि-विपर्यय होकर स्वयं ही स्वयं का घात करने लगता है। अशुभ कर्म का उपशम होने पर मूर्ख के प्रबल बुद्धि प्रगट हो जाती है, सुखी हो जाता है, शत्रु मित्र हो जाते हैं, शस्त्र-तृणवत और विष-अमृतवत हो जाता है। पाप का उदय होने पर धन नष्ट हो जाता है। पुण्य का उदय होने पर बिना प्रयत्न के दूर-देश से धन मिल जाता है। लाभान्तराय का क्षयोपशम होने पर अचिन्त्य धन प्राप्त हो जाता है। लाभांतराय और तीव्र असाताकर्म के उदय में संरक्षित धन भी नष्ट हो जाता है। पापोदय में भली प्रवृत्ति करता हुआ व्यक्ति भी दोषी हो जाता है और पुण्योदय में दुष्ट प्रवृत्ति करता हुआ भी गुणवान हो जाता है। अपयश-कीर्ति के उदय से सद्प्रवृत्ति अपवादित हो जाती है और यशस्कीर्ति के उदय से दुष्टता करता व्यक्ति गुण-विख्यात हो जाता है। पुण्योदय से अगुणवंत की प्रसिद्धि हो जाती है और पापोदय से गुणवान अपयश को प्राप्त होता है। पाप के उदय में जन्म, जरा, मरण, रोग, चिंता आदि से पाताल में भी कर्म का फल भोगना होता है। कोई भी शरण नहीं होता। उदीरणा को प्राप्त हुआ कर्म

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106