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जैनविद्या 25
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भोगना ही होता है। गुफा, वन, पर्वत, समुद्र आदि कहीं भी जाओ, कर्म पीछा नहीं छोड़ता। भूमि, जल, आकाश आदि में कहीं भी गमन करो, कर्म कहीं नहीं छोड़ता। इस लोक में ऐसे प्रदेश बहुत हैं जहाँ सूर्य-चन्द्रमा की किरण नहीं जा सकती, किन्तु ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ कर्म का प्रवेश निषिद्ध हो। कर्मोदय के काल में विद्या, मंत्र, बल, वीर्य, मित्रादिक कोई भी शरणभूत नहीं हैं। जैसे सूर्योदय रोकने में कोई समर्थ नहीं उसी प्रकार उदीरणा को प्राप्त कर्म को कोई रोकनेवाला नहीं। कर्म के सहकारी कारण बाह्य निमित्त मिलने पर कर्मोदय को रोकना देवादिक की क्षमता के बाहर है। रोगादिक का इलाज जगत में दिखायी देता है, परन्तु कर्म के उदय को रोकनेवाला मंत्र-तंत्र, औषधि जगत में नहीं है।
असातावेदनीय कर्म की उदीरणा में रोग का इलाज नहीं होता। असातावेदनीय कर्म का उपशम होने पर औषधादिक से रोग का इलाज होता है। अशुभ कर्म के उदय होने पर विद्याधर, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती तथा देवेन्द्र आदि कोई शरणभूत नहीं हैं। अशुभ कर्म का उपशम होने तथा पुण्य कर्म के उदय होने पर समस्त रक्षक हो जाते हैं। संसार में समुद्र और पृथ्वी को पार करनेवाले समर्थ हैं, किन्तु उदीरणा/कर्म के उदय का उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं है। सिंह के मुख में हरिण जिस प्रकार अशरण है इसी प्रकार कर्मोदय से ग्रस्त जीव अशरण है। उदीरणाग्रस्त जीव को दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ही रक्षक है-शरणभूत है। जब इन्द्रादिक रक्षा नहीं कर सकते, तब अधम व्यंतरादिक देव, ग्रह, यक्ष-भूत-योगिनी, क्षेत्रपाल, चंडी-भवानी आदि असमर्थ देव जीव की रक्षा करने में कैसे समर्थ होंगे! जो उनको शरणभूत मानता है वह दृढ़ मिथ्यात्व-मोहित जीव है। मनुष्य की रक्षा करने यदि कुलदेवी, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपालादिक समर्थ हों तो मनुष्य अक्षय हो जायेगा। आयु का क्षय होने पर मरण होता ही है। आयु देने में देव-दानव कोई समर्थ नहीं है। किसी को सहकारी मानना मिथ्यादर्शन का प्रभाव है। देव यदि मनुष्यों की रक्षा करने में समर्थ हैं तो वे देवलोक क्यों छोड़ते हैं? अतः परम श्रद्धान कर ज्ञानदर्शन-चारित्र-तप की परम शरण ग्रहण करो। उत्तमक्षमादि धर्म रूप परिणमन कराता हुआ आत्मा स्वयं रक्षक होता है। चार कषायरूप परिणमन से व्यक्ति स्वयं गिरता है। अपनी रक्षा अपने से होती है। इस प्रकार अठारह गाथाओं (1738-1755) में अशरण भावना का हृदयग्राही वर्णन किया गया है।