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जैनविद्या 25
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किया गया है। रत्नमाला में शिवकोटि का उल्लेख हुआ है। जिनसेन द्वारा उल्लिखित होने से वे उनके पूर्ववर्ती तो सिद्ध होते ही हैं। आराधना नियुक्ति की ओर भी यहाँ संकेत समझा जा सकता है। उत्तराध्ययन नियुक्ति, पइण्णा, मूलाचार आदि ग्रंथों में भी भगवती आराधना' की गाथाएँ यथावत् उपलब्ध होती हैं। डॉ. उपाध्ये ने यह सब प्रमाणित करने के लिए कुछ और भी साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'भगवती आराधना' उस समय की रचना है जब दिगम्बर-श्वेताम्बर के रूप में जनसंघ का विभाजन नहीं हुआ था। 'विजहना' सल्लेखना का ही रूप है। धन्न और शालिभद्र के कथानक यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी सल्लेखना प्रचलित थी। भवन्ती सुकुमाल, चाणक्क, चिलादपुत्त आदि कथानक भी यही पुष्ट करते हैं। वहाँ इस विषय पर अच्छा साहित्य भी मिलता है। भगवती आराधना' के टीकाकार अपराजित सूरि का समय चूर्णिसूत्रों और धवला टीका से भी मेल खा जाता है। इससे ऐसा लगता है कि शिवार्य का समय आचार्य कुन्दकुन्द के आस-पास होना चाहिए। इन्हें हम द्वितीय-तृतीय शताब्दी में स्थापित कर सकते हैं।
'पुव्वाइरियणिबद्धा उपजीवित्ता' तथा 'ससत्तीए' (गाथा 2160) शब्दों का प्रयोग कर आचार्य शिवार्य ने यह सूचित किया है कि उन्होंने 'भगवती आराधना' को किसी पूर्व कृति के आधार पर यथाशक्ति रचा है। संभव है, लोहाचार्य विरचित 84,000 श्लोकप्रमाणवाली 'आराधना' उनके समक्ष रही हो और उसी को उन्होंने संक्षिप्त रूप दिया हो। आज यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। ‘भगवती आराधना' के विषय को देखने से भी ग्रंथ की प्राचीनता अभिव्यक्त होती है। मरणोत्तर विधि इसी प्राचीनता को द्योतित करती है। बौद्धधर्म की महायान परम्परा में भी इसी विधि को अपनाया जाता था।
____ 'आराधना' जीवनरूपी रंगशाला का उपसंहार है। यह वैराग्यमूलक ऐसा महाद्वार है जिसमें प्रवेश कर आराधक अपने जीवन को परम शान्ति की खोज में समर्पित कर देता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में इसे समानरूप से महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। दिगम्बर सम्प्रदाय में मूलाचार आचारपरक ग्रंथ है। उसमें समाधिमरण पर विशेष व्याख्यान नहीं मिलता पर 'भगवती आराधना' में मुनि-आचार और मरणसमाधि दोनों का कथन उपलब्ध होता है। दिगम्बर परम्परा में भगवती आराधना के अतिरिक्त अन्य कोई विशेष मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं।