Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ जैनविद्या 25 प्रयोग आराधक को आपदाओं से सुरक्षित रखने के लिए एक माध्यम के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैन परम्परा में साधारणतः इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता फिर भी इसका सम्बन्ध पद्मावती, ज्वालामालिनी जैसी देवियों के साथ जोड़ा जा सकता है। 'पद्मावती कवच' शीर्षक से मंत्रशास्त्रों का उल्लेख मिलता है जिनका उपयोग परीषहों पर विजय प्राप्त करने से रहा होगा । ' जीतकल्पसूत्र' भाषा में 'कवच द्वार' का उल्लेख आता है (गाथा 476-490 ) । इसके अतिरिक्त प्रकीर्णकों में 'कवचद्वार' नामक प्रकीर्णक भी हैं। 'भगवती आराधना' के रचयिता ( शिवार्य ) के साथ 'कवच' शब्द जुड़ा रहने से ऐसा आभास होता है कि भगवती आराधना में (गाथा 1509-1682 ) इस कवच को उपन्यस्त किया गया है जिससे साधक विपदाओं से बच सके। कथा भाग की प्रारम्भिक प्राकृत गाथाओं से भी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। श्रीचन्द्र ने वृषभसेन कथा के बाद "कवचा ही यारो...” वाक्य लिखा है जिससे पता चलता है कि 19 कथाओं के बाद कवच भाग क्यों समाप्त होता है। 'वड्डाराधना' भी 'भगवती आराधना' का ही एक कन्नड़ रूप है। पाठक ने जिन 'रेवाकोट्याचार्य' का उल्लेख किया है वे 'शिवकोट्याचार्य' ही होना चाहिए । 11 आचार्य शिवार्य और उनका समय आचार्य शिवार्य ने स्वयं को 'पाणिदल - भोई' कहा है। उन्होंने आर्य जिननन्दि, सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दि के पादमूल में रहकर सम्यक् रूप से श्रुत और उसके अर्थ को जानकर पूर्वाचार्यों के द्वारा रचित आराधना को आधार बनाकर ‘भगवदी आराधना' की रचना की ( गाथा 2160-62 ) । शिवकोटि ( शिवार्य ) का उल्लेख जिनसेन ने अपने आदिपुराण ( 1.49 ) में और श्रीचन्द्र ने अपने कथाकोश में किया है | श्रवणबेलगोल शिलालेख क्र. 105 (1398) में शिवकोटि को आचार्य समन्तभद्र का शिष्य बताया गया है। हस्तिमल्ल कृत नाटक 'विक्रान्त कौरव' ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है। प्रभाचन्द्र के कथाकोश के अनुसार यह 'शिवकोटि' मूलतः वाराणसी का शैव राजा था। समन्तभद्र के भक्ति माहात्म्य से शिवलिंग को तीर्थंकर चंद्रप्रभ की मूर्ति के रूप में बदलता देखकर वह जैन बन गया था। उसने जैनागम का गहन अभ्यास किया और लोहाचार्य की 84 हजार प्राकृत गाथाओं में रचित आराधना को संक्षिप्त कर 2500 गाथाओं में मूलाराधना की रचना की । 'भगवती आराधना' में भले ही इस परम्परा का कोई उल्लेख न हो पर 'पूर्वाचार्य परम्परा' के माध्यम से वहाँ कदाचित् यही संकेत

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