Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 19
________________ जैनविद्या 25 साध्य की प्राप्ति के लिए जैनाचार्यों ने शरीर की अनित्यता और अशुचिता को व्यक्त करते हुए उसके प्रति साधक के मन में वितृष्णा और वैराग्य को जाग्रत करने का सफल प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए समाधि के स्वरूप को स्पष्ट किया है और स्वानुभूति के माध्यम से सिद्धत्व की प्राप्ति का मार्ग दिखाया है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व का त्यागकर, स्व-पर भेदविज्ञान के साथ संपूर्ण परिग्रह से दूर होकर दिगम्बर मुद्रा धारण करना आवश्यक है। आराधना आचार्य शिवार्य ने इस ग्रन्थ का नाम 'आराधणा' ही कहा है - वोच्छं आराधणां (गाथा 1); आराधणा सिवज्जेण (गाथा 2160)। उन्होंने आराधना को समस्त प्रवचन का सार कहा है (गाथा 1497)। टीकाकार अपराजित सूरि ने भी अपनी टीका के अन्त में इसे आराधना टीका ही कहा है (आराधणा भगवदी, गाथा 2162)। उत्तरकाल में इसके आधार पर लिखे गये ग्रन्थ भी ‘आराधना' के नाम से जाने जाते हैं, जैसे देवसेन-कृत ‘आराधनासार', अमितगति-कृत ‘आराधना', आशाधर-कृत 'मूलाराधना दर्पण'। 'आराधना' के आधार पर कुछ कथा-ग्रन्थों की भी रचना हुई है। जैसे प्रभाचन्द्र-कृत 'आराधना कथा प्रबन्ध', ब्रह्मनेमिदत्त-कृत 'आराधना कथाकोश', कन्नड़ आचार्य शिवकोटि-कृत ‘वड्ढाराधने'। परन्तु गाथा . 2162 में 'आराधना भगवदी एवं भत्तीए वण्णिदा सन्ति' के आधार पर इस ग्रन्थ का नाम 'भगवती आराधना' अधिक प्रचलित हो गया। हमने भी इसे 'भगवदी आराधणा' ही स्वीकारा है। जिनरत्नकोश में 'आराधना' पर उपलब्ध साहित्य की एक सूची दी गई है जो इस प्रकार है - 1. आराधनासार - आचार्य देवसेन (10वीं शती) द्वारा लिखित इस ग्रन्थ में 115 प्राकृत गाथाएँ हैं जिनमें चारों प्रकार की आराधनाओं का वर्णन किया गया है। इस पर रत्नकीर्ति ने संस्कृत टीका लिखी है। आचार्य गुणभद्रकृत आत्मानुशासन, आचार्य अमृतचन्द्र-कृत समयसारकलश, आचार्य शुभचन्द्र-कृत ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों से इसमें उद्धरण दिये गये हैं। 2. आराधनामाला - इसे 'संवेग रंगशाला' भी कहा जाता है। इसमें 10,053 प्राकृत गाथाएँ हैं। जिनेश्वर सूरि के शिष्य जिनचन्द्र सूरि ने यह ग्रन्थ

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