________________
जैनविद्या 25
शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यौ। कृत्स्नं श्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवन्तौ भवतः कृतार्थौ।।3।।'
- उन (स्वामी समन्तभद्र) के शिवकोटि और शिवायन नाम के दो शिष्य थे जो शास्त्र के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ थे और जिन्होंने श्री गुरुजी के चरणों में रहकर सम्पूर्ण श्रुत (शास्त्रों) का अध्ययन कर लोक को कृतार्थ किया।
शिवकोटिप्रद वंदे शरण्यमभिनंदनं।
स्वयंवर-महाराज-सिद्धार्था-स्वामिनी-सुतं ।।4।। - मैं शिवकोटि (=मोक्ष) प्रदान करनेवाले अर्थात् मोक्ष का मार्ग बतानेवाले उन शिवकोटि मुनि की वन्दना करता हूँ जिन्होंने महाराज स्वयंवर और महारानी सिद्धार्था के पुत्र (चौथे तीर्थंकर) भगवान अभिनन्दननाथ की शरण ली है।
श्री शिवकोटिमुनीश्वरपुरोगमाः स्ववगतागमा नृणां।
ज्ञानतपश्चारित्रं सदर्शनं दर्शयामासुः।।।।।'
- पूर्वाचार्यों के माध्यम से आगमों से भली-भाँति परिचित हुए श्री शिवकोटि मुनीश्वर ने (सम्यक्) दर्शन सहित (सम्यक्) ज्ञान, (सम्यक्) तप और (सम्यक्) चारित्र का दर्शन कराया।
पहचान
ऊपर प्रथम श्लोक में आचार्य जिनसेन (समय लगभग 770-850 ई.) ने अपने 'आदिपुराण' में मोक्षमार्ग बतानेवाली 'चतुष्टय आराधना' के कर्ता के रूप में शिवकोटि मुनि का स्मरण किया है। हरिषेण व चामुण्डराय प्रभृति कुछ परवर्ती ग्रन्थकारों ने तथा डॉ. ए. एन. उपाध्ये और डॉ. बी. के. खड़बड़ी प्रभृति कुछ आधुनिक विद्वानों ने भी प्राकृत ‘आराधना' ग्रन्थ का रचयिता शिवकोटि आचार्य को माना है। कन्नड़ भाषा में रचित 'वड्डाराधने' के कर्ता भी सामान्यतः शिवकोटि आचार्य माने जाते हैं, किन्तु डॉ. खड़बड़ी ने अपनी पुस्तक 'वड्ढाराधने : ए स्टडी' में किये गये विवेचन में 10वीं शती ईस्वी के प्रथम पाद में कन्नड़ में शिवकोट्याचार्य प्रणीत ‘वड्डाराधने' के कवच अधिकार पर आधारित 19 कथाओं के इस संग्रह को किसी अज्ञातनामा व्यक्ति की कृति बताया है। इस प्रकार आचार्य जिनसेन, जो 8वीं-9वीं शती में हुए, द्वारा उक्त कन्नड़ ‘वड्डाराधने' के कथाकथित कर्ता शिवकोटि मुनि का उक्त श्लोक में स्मरण करने का प्रश्न नहीं उठता।