Book Title: Jain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Author(s): Mohan Chand
Publisher: Eastern Book Linkers

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ XV क्या कभी सर्वाङ्गीण रूप से समुन्नत प्रादर्श समाज का अस्तित्व वास्तव में रहा भी था ? परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह भी विदित होता है कि अनेक अवसरों पर भारतीय समाज स्वर्णयुग की अवस्थाओं से गूजरा है और अनेक ऐसे साम्राज्य भी स्थापित हुए हैं जिनकी उपलब्धियाँ स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। अपने अतीत से तथा अपने पुरातन सांस्कृतिक मूल्यों से गौरवान्वित होने की प्रवृत्ति मानव मात्र की एक स्वाभाविक और सामाजिक मनोवृत्ति रही है परन्तु भारतीयों के प्राच्य मनोविज्ञान की यह एक विशेष उपलब्धि है कि उन्होंने अपने पूर्वकालिक इतिहास को संरक्षित करने तथा उसे आगे बढ़ाने की चिन्ता के कारण जहाँ एक ओर वैदिक काल में ही इतिहास तथा पुराण विद्याओं की वेदों के समान ही दिव्य उत्पत्ति स्वीकार कर ली थी तो वहाँ दूसरी ओर इतिहास-पुराण के आलोक में वेदों की पुनर्व्याख्या पद्धति को भी वैज्ञानिक आयाम मिले तथा इतिहास चेतना से अनभिज्ञ व्याख्यानों द्वारा वेदों की अवज्ञा होने की अवधारणा भी पल्लवित हुई इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥ वैदिक तथा श्रमण दोनों परम्परामों में धार्मिक साहित्य के माध्यम से प्राचीन इतिहास और पौराणिक आख्यानों को संग्रहीत करने की एक अदम्य आकांक्षा रही है। इतिहास-पुराण लेखन की साहित्यानुप्राणित विधानों का इन दोनों परम्पराओं में सूत्रपात हुआ। रामायण, महाभारत और पंचलक्षणात्मक विशाल पुराण साहित्य. की रचना एक वैदिक अभिगम है तो निकाय, जातक आदि बौद्धों के साहित्य में भी भगवान् बुद्ध की प्राचीन परम्परानों के आख्यान तथा कथाएं संकलित हुई हैं। जैनों की श्रुतज्ञान-परम्परा एक अोर विशाल आगम साहित्य के माध्यम से प्रवाहित हुई है तो दूसरी ओर प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग नामक अनुयोग-चतुष्टय के विषयोपकथन जैन धर्म तथा दर्शन के अतिरिक्त प्राचीन इतिहास-पुराण सम्बन्धी प्रवृत्तियों से भी अनुप्रेरित हैं। जैन पुराणों तथा पौराणिक शैली के चरित महाकाव्यों का कथानक तंत्र त्रिषष्टिशलाकापुरुषों के जीवन वृत्त तथा उनके द्वारा स्थापित प्रादर्शों के प्रति समर्पित होता है । जैन लेखकों की सराहना करनी होगी कि उन्होंने पुरातनता की परिधि में रहते हुए भी अपने युग के समाज मूल्यों की अपेक्षा से समाज को स्वस्थ एवं गतिशील दिशा प्रदान करने के एक महान् दायित्व का भी निर्वाह किया है। प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में जिन जैन संस्कृत महाकाव्यों को अध्ययनार्थ चुना गया है उनके अधिकांश लेखक मात्र कवि ही नहीं थे बल्कि अपने युग के महान्

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 720