Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मवाद
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है । जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं वे भोग्य हैं तथा जो पदार्थ बार-बार भोगे जाते हैं वे उपभोग्य हैं। अन्न, जल, फल, आदि भोग्य पदार्थ हैं। वस्त्र, आभूषण, स्त्री आदि उपभोग्य पदार्थ हैं । जिस कर्म के उदय से प्राणी अपने वीर्य अर्थात् सामर्थ्य-शक्ति-बल का चाहते हुए भी उपयोग न कर सके उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं । इस तरह आठ प्रकार के मूल कर्मों अथवा मूल कर्मप्रकृतियों के कुल एक सौ अठावन भेद होते हैं जो इस प्रकार हैं :
१. ज्ञानावरणीय कर्म २. दर्शनावरणीय कम ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयु कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म ८. अन्तराय कर्म
योग १५८ कर्मों की स्थिति : ___जैन कर्मग्रन्थों में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की विभिन्न स्थितियां (उदय में रहने का काल ) बताई गई है जो इस प्रकार हैं :
अधिकतम समय न्यूनतम समय १. ज्ञानावरणीय तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय
बारह मुहूर्त ४. मोहनीय
सत्तर कोटाकोटि सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ५. आयु
. तैतीस सागरोपम ६. नाम
बीस कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त ७. गोत्र ८. अन्तराय
तीस कोटाकोटि सागरोपम अन्तमुहूर्त सागरोपम आदि समय के विविध भेदों के स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए अनुयोगद्वार आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। इससे जैनों की कालविषयक मान्यता का भी ज्ञान हो सकेगा।
कम
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