Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 4
Author(s): Mohanlal Mehta, Hiralal R Kapadia
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कर्मवाद
१९
संभोग की कामना के अभाव के रूप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलाषा के रूप में है जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुष दोनों हैं । इसकी निवृत्ति--तुष्टि चिरकाल एवं चिरप्रयत्नसाध्य है । इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल २८ उत्तर- प्रकृतियाँ -- भेद होते हैं : ३ दर्शनमोहनीय + १६ कषायमोहनीय + ९ - नोकषायमोहनीय |
आयु कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ चार हैं : १. देवायु, २. मनुष्यायु, ३. तिर्यञ्चायु और ४. नरकायु । आयु कर्म की विविधता के कारण प्राणी देवादि जातियों में रह कर स्वकृत नानाविध कर्मों को भोगता एवं नवीन कर्म उपार्जित करता है । आयु कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है । आयु दो प्रकार की होती है : अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । बाह्य निमित्तों से जो आयु कम हो जाती है अर्थात् नियत समय से पूर्वं समाप्त हो जाती है उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं । इसी का प्रचलित नाम अकालमृत्यु है । जो आयु किसी भी कारण से कम न हो अर्थात् नियत समय पर ही समाप्त हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं ।
नाम कर्म की एक सौ तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं । ये प्रकृतियाँ चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येक प्रकृतियाँ, त्रसदशक और स्थावरदशक | इन प्रकृतियों के कारणरूप कर्मों के भी वे ही नाम हैं जो इन प्रकृतियों के हैं । पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों का समावेश है : १. चार गतियाँ -- देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; २. पाँच जातियाँ - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; ३. पाँच शरीर — औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, ४. तीन उपांग - औदारिक, वैक्रिय और आहारक ( तैजस और कार्मण शरीर के उपांग नहीं होते); ५. पंदरह बन्धन - -औदारिक-औदारिक, औदारिक- तैजस, औदारिक- कार्मण, औदारिक तैजस - कार्मण, वैक्रियक्रिय, वैक्रिय-तेजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय - तेजस - कार्मण, आहारक - आहारक, आहारक - तैजस, आहारक - कार्मण, आहारक - तेजस - कार्मण, तैजस-तेजस, तेजस - कार्मण और कार्मण-कार्मण; ६. पाँच संघातन - औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; ७. छः संहनन - व्रजऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवार्त; ८ छः संस्थान - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन और हुण्ड; ९. शरीर के पाँच वर्ण१०. दो गन्ध — सुरभिगन्ध और कषाय, आम्ल और मधुर; १२.
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कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और सित; दुरभिगन्ध; ११. पाँच रस - तिक्त, कटु,
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