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जैन परम्परा का इतिहास
आज हम अवसर्पिणी के पांचवें पर्व - दु·पमा मे जी रहे है । हमारे युग का जीवन-क्रम एकान्त-सुषमा से शुरू होता है । उस समय भूमि स्निग्ध थी । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अत्यन्त मनोज्ञ थे । मिट्टी का मिठास आज की चीनी से अनन्त गुणा अधिक था । कर्म-भूमि थी किन्तु अभी कर्म-युग का प्रवर्तन नही हुआ था | पदार्थ अति स्निग्ध थे, इसलिए उस जमाने के लोग तीन दिन से थोड़ी-सी वनस्पति खाते और तृप्त हो जाते । खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नही थे । विकार बहुत कम थे, इसलिए उनका जीवन-काल बहुत लम्बा होता था । वे तीन पल्य तक जोते थे । अकाल मृत्यु कभी नही होती थी । वातावरण की अत्यन्त अनुकूलता थी । उनका शरीर तीन कोस ऊँचा होता था । वे स्वभाव से शान्त और सन्तुष्ट होते थे । यह चार कोड सागर का एकान्न सुखमय काल - विभाग बीत गया । तीन कोडाकोड सागर का दूसरा सुखमय भाग शुरू हुआ । इसमें भोजन दो दिन से होने लगा । जीवन-काल दो पल्य का हो गया और शरीर की ऊँचाई दो कोस को रह गई । इनकी कमी का कारण था भूमि और पदार्थों की स्निग्वता की कमी । काल और आगे वढा । तीसरे सुख-दुखमय काल विभाग में और कमी आ गई । एक दिन से भोजन होने लगा । जीवन का काल - मान एक पल्य हो गया और शरीर की ऊँचाई एक कोस की हो गई इस युग की कालमर्यादा थी एक कोडाकोड़ सागर । पदार्थो की स्निग्धता मे बहुत कमी हुईं । सहज नियमन व्यवस्था आई और इसी दौरान मे कुलकर-व्यवस्था को
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इसके अन्तिम चरण मे टूटने लगे, तब कृत्रिम जन्म मिला ।
यह कर्म- युग के शैशव काल की कहानी है । समाज संगठन अभी हुआ नही था । यौगलिक व्यवस्था चल रही थी, एक जोडा ही सब कुछ होता था । न कुल था, न वर्ग और न जाति । समाज और राज्य की बात बहुत दूर थी । जन सख्या कम थी । माता-पिता को मौत से दो या तीन मास पहले एक युगल जन्म लेता, वही दम्पत्ति होता । विवाह सस्था का उदय नही हुआ था । जीवन की आवश्यकताएँ बहुत सीमित थी । न खेती होती थी, न कपडा बनता था और न मकान बनते थे, उनके भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे, शृगार और आमोद-प्रमोद, विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम