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जैन कथा कोष
अगड़दत्त के पिता का देहान्त बचपन में ही हो गया था। इसीलिए वह 'कौशाम्बी' में अपने पिता के मित्र और सहपाठी 'दृढ़प्रहारी' के पास सारथी विद्या सीखने गया। वहाँ से शिक्षा प्राप्त करके जब अगड़दत्त उज्जयिनी लौटा और राजा जितशत्रु से मिला तथा अपना परिचय दिया तो राजा ने कहा'तुम्हारी शिक्षा हिंसाप्रधान है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। सच्ची शिक्षा तो महाव्रतों का पालन ही है।' ___इतने में जनपद के निवासियों ने आकर प्रार्थना की—'महाराज ! हम लोग एक चोर से बहुत दु:खी हैं। हमें चोर के आतंक से मुक्त कराइये।'
इस पर अगड़दत्त ने चोर को पकड़ने का प्रण कर लिया। उसने चोर को ठिकाने लगा दिया। उसके गुप्त स्थान का पता लगाया, जहाँ उसने चोरी का धन रखा था और प्रजा का कष्ट मिटाया। ___ कौशाम्बी-निवासी 'यक्षदत्त' गृहपति की पुत्री 'श्यामदत्ता' के साथ उसका विवाह हुआ। कौशाम्बी से वह 'उज्जयिनी' अपनी पत्नी के साथ रथ में बैठकर जा रहा था। मार्ग में उसे एक सार्थ मिला। वे दोनों सार्थ के संग हो लिये। इसी सार्थ में एक परिव्राजक भी आ मिला। अगड़दत्त परिव्राजक की
चेष्टाओं से समझ गया कि यह कोई धूर्त, ठग और चोर है। मार्ग में उस परिव्राजक ने सार्थ वालों को विष-मिश्रित खीर खिलाई। परिणामस्वरूप सभी काल के गाल में समा गये। लेकिन अपनी सावधानी के कारण अगड़दत्त और श्यामदत्ता बच गये। अगड़दत्त के साथ संघर्ष में परिव्राजक मरण-शरण हो गया।
इसी प्रकार मार्ग में बाघ, सर्प, अर्जुन चोर पर विजय प्राप्त करके अगड़दत्त श्यामदत्ता से साथ उज्जयिनी पहुंच गया और राजा की सेवा करते हुए सुख से रहने लगा।
एक बार राजाज्ञा से उद्यान में उत्सव मनाया गया। उस उत्सव में अगड़दत्त भी अपनी पत्नी श्यामदत्ता के साथ सम्मिलित हुआ। लेकिन श्यामदत्ता को नाग ने डस लिया। वह अचेत हो गई। अगड़दत्त को अपनी पत्नी श्यामदत्ता से बहुत प्यार था। इसलिए वह अपनी पत्नी के शव के पास बैठा आधी रात तक आँसू बहाता रहा। उसी समय आकाश-मार्ग से दो विद्याधर निकले। उन्हें अगड़दत्त पर दया आ गई। वे भूमि पर उतरे और विद्याबल से श्यामदत्ता को निर्विष कर दिया। अगड़दत्त ने उनका बहुत उपकार माना |