________________
26... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
4. जीवन में होने वाले सुख-दुख की इच्छाओं को व्यक्त करना । 5. गर्भ एवं बीज सम्बन्धी दोषों को दूर करना ।
6. धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त करना । जैसे उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन एवं धार्मिक कृत्यों के अनुष्ठान का अधिकार प्राप्त होता है । 7. पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति करना ।
8. चारित्रिक विकास करना ।
9. व्यक्तित्व निर्माण करना ।
10. समस्त शारीरिक क्रियाओं को आध्यात्मिक लक्ष्य से सम्पूरित करना ।
यदि प्राचीन गृह्यसूत्रों में उल्लेखित संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों का सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक विवेचन किया जाए, तो उनका उद्देश्य यही प्रतीत होता है कि व्यक्ति अपने गृहस्थ जीवन, पारिवारिक जीवन और सामाजिक जीवन को कल्याणकारी ढंग से जीने की कला सीख सके। इसके माध्यम से विवेक बुद्धि एवं कर्त्तव्य बुद्धि को जागृत कर सके। अपनत्व एवं मैत्री भाव के सुमन खिला सके तथा मनुष्य जीवन की यात्रा को सर्वांगीण रूप से सुखद एवं आनन्द के सागर से भर सके।
सुस्पष्ट है कि संस्कारों के आरोपण का उद्देश्य महान् एवं सर्वोत्तम है। इन संस्कारों के पीछे इहलौकिक या भौतिक सुख की कोई कामना नहीं है। किसी प्रकार का कोई स्वार्थ भी निहित नहीं है। केवल जीवन-यात्रा को प्रगति पथ पर अग्रसर करने वाले गुणों का आविर्भाव करना तथा उनका सदाचरण करते हुए वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन को आदर्शमय बनाना ही इसका मूलभूत उद्देश्य रहा है।
संस्कार आरोपण की आवश्यकता क्यों?
संस्कार प्रत्येक मानव की अमूल्य धरोहर है। संस्कार के आधार पर ही जीवन का परिवर्तन, परिवर्धन और परिष्कार होता है। संस्कार व्यक्ति के धरातल को ऊँचा उठाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। सुसंस्कारों का ही प्रभाव होता है कि मनुष्य सत्संग, सद्गुरु और संत वाणी को सुनकर और पढ़कर उसे अपनाता है।
भारतीय दर्शन की सभी परम्पराओं में गृहस्थ के सोलह संस्कार माने गए हैं, जिन्हें ‘षोडश संस्कार' कहते हैं। माता के गर्भ में आने के दिन से लेकर मृत्यु