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306...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन पंचतत्त्व से रचित शरीर को अग्नि के माध्यम से तुरन्त पंचतत्त्व में विलीन कर देते हैं। उनकी यह सोच वास्तविकता को प्रकट करती है एवं पंचतत्त्व को शाश्वत स्वीकार करने के लिए उत्प्रेरित करती है।
जैन एवं वैदिक-दोनों परम्पराओं में यह संस्कार मान्य है, किन्तु जैन धर्म की ही दिगम्बर परम्परा इस क्रिया को पृथक् संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं करती है। तीनों परम्पराओं में मृतदेह के संस्कार हेतु अग्निक्रिया को स्वीकार किया गया है अर्थात इस सम्बन्ध में तीनों का मतैक्य है। अन्त्य संस्कार का शाब्दिक अर्थ
इस संस्कार को पितृमेध, अन्त्यकर्म, दाह संस्कार, श्मशानकर्म अर्थ, अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। अन्त्य संस्कार का सीधा सा अर्थ है-अन्तिम समय में किया जाने वाला संस्कार। प्रत्येक जीवन की अन्तिम स्थिति देहविलय ही हो सकती है। वैदिक परम्परा ने इस शब्द को इसी अर्थ में स्वीकृत किया है, जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में इसका व्यापक अर्थ किया गया है। ___ जैन परम्परा के विधि-विधानपरक ग्रन्थों में विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि में इस संस्कार के अन्तर्गत दो प्रकार की क्रियाओं का समावेश किया है1. मरण से पूर्व की साधना विधि और 2. मृत्यु के बाद के क्रिया विधान।
यद्यपि दिगम्बर मत में मृत्यु के बाद किए जाने वाले विधि- विधानों का कोई विस्तृत विवेचन नहीं है, तथापि भगवती आराधना में गृहस्थ-मुनि द्वारा मृत्यु के पूर्व की जाने वाली साधना विधि का उल्लेख अवश्य है। इसमें मुनि के मृत देह की प्रतिस्थापना का स्पष्ट सूचन है। इस अन्तिम आराधना को अनशन विधि कहते हैं। जैन परम्परा में अनशन या अन्त्य शब्द से मृत्यु से पूर्व की साधनाएँ और मरण के बाद की क्रियाएँ-दोनों अर्थों को ग्रहण किया गया है। जैन ग्रन्थों में मृत्यु से पूर्व की साधना को समाधिमरण, संथारा ग्रहण आदि भी कहा गया है, अत: दृढ़ता से कहा जा सकता है कि जैन विचारणा में अन्त्य संस्कार का तात्पर्य न केवल मृतक के शव सम्बन्धी क्रियाओं से है, अपितु मृत्यु के सन्निकट होने पर अन्तिम समय में की जाने वाली विशिष्ट प्रकार की साधनाओं से भी है।