Book Title: Jain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 386
________________ 328... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन स्वीकारे गए हैं, किन्तु उन कृत्यों को सम्पादित करने की विधियाँ भिन्न-भिन्न हैं जैसे-अर्थी बनाना, शव उठाना, शवयात्रा गमन, चिता की भस्म एवं अस्थियों का विसर्जन करना, शोक निवारण करना, स्नान कराना, मृतक को सजाना आदि। इन कृत्यों को किस दिन किया जाए। इस विषय में भिन्नता है। कुछ विधान जैसे-पुतला बनाना, उपकरण रखना, शरीर शुद्धि करके घर लौटना, तीसरे दिन जिनदर्शन करना, गुरु महाराज का उपदेश सुनना आदि. श्वेताम्बर परम्परा में ही प्रचलित हैं। कुछ क्रियाएँ जैसे - होम करना, अनुस्तरणी-क्रिया, विधवा का चिता पर लेटना, प्रेत निवारण, उदककर्म, शान्तिकर्म, पिण्डदान, सपिण्डीकरण आदि वैदिक परम्परा के ही अंगभूत हैं, श्वेताम्बर में इन विधियों का कोई अस्तित्व नहीं है। इसके अतिरिक्त सबसे महत् अन्तर शव क्रिया को लेकर परिलक्षित होता है। श्वेताम्बर मतानुसार गृहस्थ श्रावक के लिए अग्नि संस्कार का ही प्रावधान है। हाँ, जैन मुनियों के लिए जंगल में जाकर परिष्ठापित करने (छोड़ देने) की बात अवश्य कही गई है। जैन शास्त्रों में इस क्रिया के स्पष्ट प्रमाण भी मिलते हैं। वहाँ इस क्रिया को 'महापरिष्ठापनिकाविधि' के नाम से निर्दिष्ट किया है। प्राचीनकाल में यह परिपाटी मौजूद भी थी। 14वीं शती के अनन्तर जैन मुनियों के लिए अग्नि संस्कार की प्रथा शुरू हुई है । सुस्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा में गृहस्थ के लिए अग्नि संस्कार ही आवश्यक बताया है। मुनियों के लिए अग्नि संस्कार एवं परिष्ठापन- दोनों विधान विहित हैं। केवल आचारदिनकर में दो वर्ष की आयु से कम बालक के लिए भूमि संस्कार करने का निर्देश है, जबकि वैदिक परम्परा में भूमि निखात, जल निखात, अग्नि संस्कार, गड्ढा निखात, जंगल में छोड़ देना आदि विविध प्रणालियाँ प्रचलित रही हैं। उपसंहार यदि हम अन्त्येष्टि संस्कार का समीक्षात्मक दृष्टि से आकलन करें, तो यह सुनिश्चित होता है कि अन्त्य संस्कार आध्यात्मिक आरोहण की प्रेरणा प्रदान करता है। भले ही वैदिक परम्परा के विधि-विधान भौतिकता एवं मृतक की सांसारिक सुख-सुविधाओं से सम्बन्ध रखते हों, परन्तु इस संस्कार की प्रेरणा में शाश्वत तत्त्व निहित हैं। इस संस्कार के माध्यम से यह उद्बोध दिया जाता है कि जीवन का अन्तिम अतिथि मृत्यु है । वह समस्त विश्व का नियन्ता है, अत: प्रसन्नचित्त

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