Book Title: Jain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 387
________________ अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप ...329 से मृत्यु को स्वीकार करें। विश्व के समस्त सम्बन्ध अनित्य हैं। आत्मा सदैव अजर और अमर है, इसीलिए किसी के लिए शोक करना व्यर्थ है। प्रियजन के विरह से उत्पन्न होने वाला शोक मोहजन्य है, शोक का त्याग करना चाहिए। इस संस्कार की प्रारम्भिक क्रियाओं द्वारा यह शिक्षा दी जाती है कि यह शरीर नाशवान है, इससे आत्मा का हित साधन करना यही वास्तविक बुद्धिमानी है। समय अमूल्य है, इसका उपयोग मृत्यु के पूर्वकाल तक ही संभव है। मृत्यु प्राप्त व्यक्ति के द्वारा भी यह प्रेरणा मिलती है कि समस्त सम्बन्ध काल्पनिक है। यह विनाशशील शरीर नित्य अविनाशी आत्मा से धारण किया गया है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र इत्यादि का सम्बन्ध थोड़े समय के लिए है। किसी के अभाव में किसी का कार्य अवरूद्ध नहीं होता। संचय, वासना, अनीति, तृष्णा, द्वेष, अहंकार - ये सब निरर्थक हैं। परमार्थ, संयम, सेवा, ज्ञान, धर्म आदि ही शुभ कृत्य हैं। दूसरों की मृत्यु देखकर अपनी मृत्यु के लिए भी सजग बन जाएं। शरीर को नश्वर समझकर आत्मोत्थान में शीघ्रातिशीघ्र प्रवृत्त हो जाएं। इस प्रकार अन्त्येष्टि संस्कार के माध्यम से बहुत-सी लाभदायी प्रेरणाएँ सम्प्राप्त होती हैं। __अध्याहारत: यह संस्कार हमें असली बोध देता है। शरीर का धर्म क्या है? संसार का स्वरूप क्या है? पारिवारिक सम्बन्धों का आधार क्या है? कौन किसके लिए जीता है? सभी कोई स्वार्थपूर्ति हेतु एक-दूसरे से बंधे हुए हैं, इत्यादि आध्यात्मिक विचारों को प्रकट करता है, शरीर एवं परिवार के स्वार्थी सम्बन्धों से ऊपर उठने को उत्प्रेरित करता है तथा अन्ततोगत्वा चरम लक्ष्य(मोक्ष) की प्राप्ति करवाने में भी निमित्तभूत बन सकता है, अतएव इसे संस्कार की उपादेयता भी कहा जा सकता है। सन्दर्भ-सूची . 1. हिन्दूसंस्कार, पृ. 300-301 2. आचारदिनकर, पृ. 68-72 3. हिन्दूसंस्कार, पृ. 312-13 4. आचारदिनकर, पृ. 72 5. वही, पृ. 72 6. जैनसंस्कारविधि, अनु.-पं. मनसुखलाल नेमचंद, पृ. 222 7. भगवती आराधना ( विजयोदया टीका ), 230/444/20

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