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अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप ...307
आध्यात्मिक दृष्टि से अन्त्य संस्कार की आवश्यकता
मृत्यु को भी एक संस्कार की संज्ञा देने के पीछे क्या प्रयोजन रहा होगा? यह अवश्य विचारणीय है।
यदि हम जैन धर्म की दृष्टि से विचार करें, तो व्यक्ति को आत्मोन्मुखी एवं साधनाभिमुखी बनाने हेतु यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति द्वारा जन्म-जन्मान्तरों में किए गए दुष्कृतों की आलोचना की जाती है, उन पाप कार्यों को न करने की प्रतिज्ञाएँ दिलवाई जाती हैं, किसी भी प्राणी के साथ रहे हुए राग-द्वेष, मोह-ममत्व आदि भावों का त्याग करवाया जाता है, किसी के साथ वैर विरोध या मन मुटाव हुआ हो, तो उससे क्षमायाचना करवाई जाती है। साथ ही उसे विविध प्रकार के तपोनुष्ठान में प्रवृत्त किया जाता है।
जैन दर्शन व्यक्ति के जन्म-मरण, सुख-दुःख आदि में उसके अध्यवसायों को निमित्तभूत मानता है। शास्त्र वचन है-'परिणामे बन्ध परिणामे मोक्ष' अशुभ अध्यवसायों द्वारा पाप कर्मों का बन्धन होता है, जिसके फलस्वरूप आत्मा दुःख आदि स्थितियों से गुजरती है तथा शुभ अध्यवसायों द्वारा जन्म-मरण से मुक्त होकर अव्याबाध सुखरूप मोक्ष अवस्था को प्राप्त करती है। जैन विचारकों की एक अवधारणा यह भी है कि मृत्यु को सुधारने पर ही जन्म सार्थक बनता है। एक जन्म के सार्थक होने पर अनेकशः जन्म सार्थक हो जाते हैं। मृत्यु को सुधारना या मृत्यु को सार्थक करना यह व्यक्ति के स्वयं के अध्यवसायों पर आधारित है। इस दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखते हुए इस संस्कार के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता, शरीर की अनित्यता एवं रिश्तों की मोहजन्यता का आभास करवाया जाता है। व्यक्ति एवं वस्तुओं के प्रति अनासक्ति का भाव जगाया जाता है। 'मित्ती मे सव्वभूएसु' “एगो मे सासओ अप्पा' 'अरिहंतो महदेवो' इत्यादि वैराग्यमूलक वाक्यों द्वारा जीवन का वास्तविक बोध करवाया जाता है, ताकि अन्त समय में उसके परिणाम सही रहें, विशुद्ध रहें, आत्मस्थ रहें।
इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि जैन परम्परा में इस संस्कार की आवश्यकता का मूलभूत प्रयोजन अन्तिम क्रिया के साथ-साथ व्यक्ति को मोक्ष उपलब्धि एवं निर्वाण प्राप्ति करवाना रहा है।