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अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप ...321 तिथियों के दिन श्राद्ध दिए जाते हैं तथा यह क्रिया तीन पक्षों के अन्त में बारहवें दिन या वर्ष समाप्त होने पर होती है। ___ शव क्रिया के विभिन्न प्रकार- हिन्दू परम्परा में दाह क्रिया के अतिरिक्त शव त्यागने के अन्य प्रकार भी कहे गए हैं। शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक, संन्यासी, वानप्रस्थ, प्रवासी, अकाल मृत्यु प्राप्त पतित आदि व्यक्तियों के लिए शव त्यागने की अलग-अलग विधियाँ बताई गईं हैं। उनमें शिशु के लिए भूमि निखात, संन्यासियों के लिए जंगल में छोड़ आना या गड्ढे में लिटाकर ढक देना, अकाल मृत्यु वालों के लिए जलनिखात या वन में छोड़ आना इत्यादि प्रथाएँ प्रचलित थीं। आज प्राय: अग्नि संस्कार की प्रवृत्ति ही मौजूद है। इस प्रकार शव की व्यवस्था के विभिन्न प्रकार मिलते हैं।
वैदिक परम्परा के उक्त क्रियाकाण्डों से यह अवगत होता है कि हिन्दूधर्म में मृत व्यक्ति की भौतिक सुख-सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। उसके आध्यात्मिक लाभ या मोक्ष प्राप्ति मरण के लिए की जाने वाली प्रार्थनाएँ बहुत कम हैं। सभी संस्कार प्रायः विश्वासमूलक एवं धारणा प्रधान हैं। पारमार्थिक भावनाओं का वहाँ कोई विशेष स्थान नहीं है। व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक स्वच्छता और स्वास्थ्य का पूरा प्रावधान है। संक्षेपत: मृतक की सुखसविधाओं एवं पारलौकिक जीवन की मंगल कामनाओं को लेकर ही अधिकतर विधि-विधान प्रचलित हुए हैं। अन्त्य संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों के प्रयोजन
मानव शरीर इस धरती की सबसे बड़ी विभूति है एवं दुनियाँ की सर्वोपरि कलाकृति है। मानव-मस्तिष्क में उठने वाले विचारों और अन्त:करण में उठने वाले भावों की क्षमता इतनी अधिक है कि उनके आधार पर वह देवोपम आनन्द का अनुभव कर सकता है। अपने को प्रकाशवान् बनाते हुए उस प्रकाश से अन्य अनेकों को प्रकाशयुक्त कर सकता है। प्रत्येक मानव में आनन्द का स्रोत भरा पड़ा है। यदि वह राग-द्वेष-अंहकार आदि विकृतियों और गलत भ्रान्तियों से विलग रहे, तो प्रतिपल आह्लाद का अविरल स्रोत हर किसी के लिए बहा सकता है। यह सामर्थ्य केवल मनुष्य-जाति में ही है। यों तो यह जगत् जड़ है, उसमें सब कुछ ऊबड़-खाबड़ और अस्त-व्यस्त है, पर प्रेम, पुण्य और परमार्थ