Book Title: Jain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 363
________________ अध्याय - 17 अन्त्य संस्कार विधि का शास्त्रीय स्वरूप जन्म और मृत्यु इस विश्व के दो अटल सत्य हैं। मृत्यु, जीवन का अन्त मानी जाती है। इसी कारण मानव जीवन एवं संस्करण सम्बन्धी संस्कारों का समापन भी मृत्यु के साथ ही होता है। संसार से मनुष्य की अन्तिम विदाई को अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह मानव का अन्तिम संस्कार है। मृत व्यक्ति की दाह क्रिया से लेकर तेरहवें दिन तक की समस्त क्रियाएँ इसी संस्कार के अन्तर्गत आती हैं। प्रारम्भिक संस्कार जहाँ ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के निमित्त किए जाते हैं, वहीं यह अन्तिम संस्कार परलोक सुधारने के लिए किया जाता है। अन्त्येष्टि-संस्कार की विविध विशेषताओं में से एक विशिष्टता यह है कि दुःख एवं सुख के दो किनारों से बह रही जीवन की यह नदी इस संस्कार के माध्यम से अवरूद्ध हो जाती है। मनुष्य की जीवन-लीला यहीं समाप्त होती है। भारतीय संस्कृति में इस संस्कार द्वारा शरीर की तीन गतियाँ देखी जाती है- 1. जलकर राख बन जाना 2. मिट्टी के स्वरूप में परिवर्तित हो जाना या 3. विष्ठा बनकर रह जाना। यदि शरीर को जला दिया जाए, तो वह राख बन जाता है, जो भारतीय परम्परा को विशेष सम्मत है। यदि मिट्टी खोदकर इस्लाम धर्म के अनुकूल शरीर को गाड़ दिया जाए, तो वह मिट्टी बन जाता है। यदि सम्बन्धियों या साधनों का अभाव हो, तो शरीर को जलीय या स्थलीय भाग में प्रक्षेपित करते हैं और वह गिद्ध, कौए आदि का आहार बनकर विकृत विष्ठा रूप हो जाता है। ये तीनों स्वरूप पूर्ववर्ती काल में मौजूद थे। आज भी तीसरे प्रकार को छोड़कर शेष दो प्रकार प्रचलन में हैं। भारतीय संस्कृति दाह-क्रिया को महत्त्व देती है। इसका कारण यह माना जा सकता है कि परिजन अपने प्रिय व्यक्ति की देह अधिक समय तक मृत अवस्था में देख नहीं सकते हैं या देखकर दु:खी होते हैं अत:

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