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अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप... 145
चलता है। इसकी महिमा को अन्यत्र भी देखा जा सकता है । पूर्वकाल में देश, धर्म, समाज और संस्कृति के उत्कर्ष में एवं लोकहित में निरन्तर लगे रहने वाले ब्राह्मणों को समय-समय पर सम्मान पूर्वक धन इसी आधार पर दिया जाता था कि वे निर्वाह की चिन्ता छोड़कर पूरा समय लोक कल्याण के लिए लगा सकें। साधु-सन्तों को दान देने के पीछे भी यही एक कारण माना जा सकता है । इसी तरह जिनप्रतिमा आदि के सम्मुख नैवेद्यादि अर्पित करने के पीछे भी अनेक तथ्य निहित हैं और यह परम्परा बहुत हद तक सार्थक एवं श्रेयस्कर भी है।
इस प्रकार अन्नप्राशन संस्कार सम्बन्धी विधि-विधान किसी न किसी रूप में शरीर, मन एवं बुद्धि को स्वस्थ रखने के निमित्त किए जाते हैं। अन्नप्राशन संस्कार का तुलनात्मक विवेचन
यदि हम अन्नप्राशन संस्कार को तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करते हैं तो बहुत सी मौलिकताएँ एवं विशिष्टताएँ नजर आती हैं। साथ ही तीनों परम्पराओं में यह विधि एवं इसके उपयोगी विधान परस्पर में कितनी समानता और असमानता को लिए हुए हैं - यह विवरण भी अधिक स्पष्ट हो जाता है ।
नाम की अपेक्षा - श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक- इन तीनों परम्पराओं में प्रस्तुत संस्कार के नाम के विषय में यत्किंचित् भी अन्तर नहीं है।
क्रम की अपेक्षा - श्वेताम्बर परम्परा में इस संस्कार का स्थान नौवाँ है, दिगम्बर परम्परा में यह संस्कार दसवें स्थान पर है, तो वैदिक परम्परा में आठवें क्रम पर रखा गया है।
अधिकारी की अपेक्षा- श्वेताम्बर मतानुसार जैन ब्राह्मण या क्षुल्लक तथा वैदिक परम्परा के अनुसार ब्राह्मण एवं पिता इस संस्कार के अधिकारी बतलाए गए हैं। दिगम्बर मत में इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं हो पाया है। यहाँ अधिकारी के विषय को लेकर तीनों परम्पराओं में कुछ समानता, तो कुछ असमानता दिखाई देती है।
मुहूर्त्त की अपेक्षा - इस संस्कार को किस शुभ दिन में सम्पन्न करना चाहिए? इसका निर्देश श्वेताम्बरमान्य आचारदिनकर में उपलब्ध होता है, शेष दोनों परम्पराएँ इस विषय में मौन हैं।
काल की अपेक्षा - श्वेताम्बर परम्परा लिंग निर्धारण के अनुसार पाँचवां या छठवां महीना, दिगम्बर परम्परा सातवाँ, आठवाँ या नवाँ मास तथा वैदिक