________________
उपनयन संस्कार विधि का आध्यात्मिक स्वरूप ... 215
अजिन - यज्ञोपवीत की विधि के अनन्तर ब्रह्मचारी को अजिन दिया जाता था। अजिन शब्द का अर्थ मृग अथवा बकरे आदि पशुओं के चर्म से है। पहलेपहल अजिन का व्यवहार उत्तरीय के रूप में किया जाता था, किन्तु आगे चलकर इसका व्यवहार आसन के लिए होने लगा। विभिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अजिन उल्लिखित हुए हैं।
दण्ड– आचार्य विद्यार्थी को एक दण्ड भी देता था। वह दण्ड यात्री का प्रतीक था तथा उसे स्वीकार करते समय ब्रह्मचारी यह प्रार्थना करता था कि वह अपना दीर्घजीवन एवं दुर्गम यात्रा सुरक्षित रूप से सम्पन्न कर सके। 91 एक लेखक के मतानुसार दण्ड प्रहरी का प्रतीक था। दण्ड प्रदान कर वेदों की रक्षा का कर्त्तव्य सौंपा जाता था । कतिपय आचार्यों के अनुसार दण्ड का प्रयोजन केवल मानवीय शत्रुओं से ही नहीं, भूत-प्रेतों तथा दुष्ट शक्तियों से भी विद्यार्थी की रक्षा करना था।°? दण्ड का एक अन्य प्रयोजन विद्यार्थी को समिधा एकत्र करने या गुरु की गाय आदि चराने के लिए वन में जाते समय अथवा अन्धकार में यात्रा के समय आत्मनिर्भर बनाना भी था।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कौपीन, मेखला और यज्ञोपवीत की भाँति ही दण्ड भी विद्यार्थी के वर्ण के आधार पर नियत था। ब्राह्मण का दंड पलाश का, क्षत्रिय का दंड उदुम्बर का और वैश्य का दंड विल्व का होता था। 93 दण्ड की लम्बाई भी विद्यार्थी के वर्ण के अनुसार नियत थी । ब्राह्मण का दण्ड उसके केशों को, क्षत्रिय का दण्ड ललाट को स्पर्श करता था तथा वैश्य का दण्ड उसकी नासिका जितना ऊँचा होता था । 94
प्रतीकात्मक कृत्य- प्राचीनकाल में आचार्य द्वारा विद्यार्थी को अपने संरक्षण में लेने के कुछ प्रतीकात्मक कृत्य सम्पन्न किए जाते थे। जैसे - आचार्य अपनी बंधी हुई अंजलि में जल लेकर विद्यार्थी की बंधी हुई अंजलि में एक मन्त्र के साथ छोड़ता था। यह शुचित्व का प्रतीक था। इसके बाद मन्त्र के साथ सूर्य का दर्शन करवाया जाता था। यह शिष्य को अविचल रूप से कर्त्तव्य पालन की शिक्षा देता था।
इसी क्रम में आचार्य शिष्य के दाहिने कन्धे की ओर मुख कर कुछ बोलते हुए उसके हृदय का स्पर्श करता था। इसका प्रयोजन यह था कि आचार्य और शिष्य के बीच औपचारिक नहीं, अपितु यथार्थ व पवित्र सम्बन्ध है। शिक्षाभ्यास