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220... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
कान को जनेऊ द्वारा मजबूती से बाँधते हैं, जिसका प्रभाव सीधा हृदयरोग पर पड़ता है। कान के आस-पास एक पतलीसी इस तरह की नस होती है, जिसे यदि जनेऊ से बांधा जाए तो उस पर दबाव पड़ने से हृदय प्रदेश के अवयव प्रभावित होते हैं तथा इस रोग की सम्भावना कम हो जाती है। यज्ञोपवीत धारण एवं उसके द्वारा कर्ण बंधन से मस्तिष्क सम्बन्धी रोग का भी निराकरण होता है। शक्ति क्षय की बीमारी में भी इसका अचिन्त्य उपयोगी प्रभाव देखा जाता है। हमारी नियमित दिनचर्या में हमें जाने-अनजाने अनेक प्रकार के कीटाणुओं तथा प्रदूषणों का शिकार होना पड़ता है। यज्ञोपवीत धारण करने से उनसे भी रक्षा संभव है।
यदि स्थूल रूप से विचार किया जाए, तो भी इसका महत्त्व बहुत अधिक प्रतीत होता है। मान लिया जाए कि किसी आदमी को किसी निर्जन स्थान में साँप ने डस लिया और चिकित्सालय वहाँ से मीलों दूर है तो वह आदमी अपने शरीर के उपवीत को निकालकर उस स्थान से कुछ ऊपर बाँध सकता है तथा किसी वस्तु से काटकर उस स्थान के जहरीले रूधिर को दूर कर अपनी जान बचा सकता है। इस तरह अन्य भी कईं कारण ढूंढे और अनुभव किए जा सकते हैं।
यदि हम सामान्य दृष्टि से देखें तो यज्ञोपवीत तीन बटे हुए धागों की पतली डोरी के समान ही जान पड़ता है, पर इस देश के प्राचीन मनीषियों ने इन तीन लड़ों में गहरा तत्त्वज्ञान भर दिया है। हिन्दू - शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति पर तीन ऋण रहते हैं - 1. देव ऋण 2. ऋषि ऋण और 3. पितृ ऋण।
श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं- जिन महापुरुषों ने मनुष्य जीवन को प्रकाशित किया है, ऐसे आदर्शवादी महामानवों ने यदि अपना सर्वस्व खोकर हमारे सामने सद्मार्ग और सदाचरण का आदर्श न रखा होता तो आज हम धार्मिक क्षेत्र के योग्य स्थान पर नहीं होते, अतएव ऐसे महामानवों के उपदेशों का यथाशक्ति पालन करते हुए शुभ कर्मों में अपनी शक्ति लगाना, यही देव ऋण से उऋण होना है | 98
ऋषि(गुरु) की विशेषता यह है कि वे संसार में श्रेष्ठ विचारधारा का निर्माण और प्रचार करते हैं। वे जानते हैं कि जब तक मनुष्यों की मनोभूमियों को अच्छी तरह परिष्कृत करके, जोत करके तैयार न किया जाएगा, तब तक