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266...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
विवाह के आठ प्रकारों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
1. ब्राह्म विवाह- यह विवाह का शुद्धतम प्रकार है। कन्या को यथाशक्ति वस्त्रालंकार से सज्जितकर विद्या सम्पन्न और शीलवान वर को घर पर बुलाकर विधि पूर्वक कन्यादान करना ब्राह्म विवाह है।28 इस विवाह का आधार कामुकता, धन लिप्सा, दहेज याचना न होकर सामाजिक-शालीनता और धार्मिक-निष्ठता है।
2. प्राजापत्य विवाह- जिस विवाह में 'तुम दोनों धर्म का साथ-साथ आचरण करो'-यह आदेश दिया जाता है, वह प्राजापत्य विवाह कहलाता है। यहाँ प्रजापति नाम यह सूचित करता है कि नव दम्पति प्रजापति के प्रति अपना ऋण चुकाने अर्थात सन्तान उत्पन्न करने एवं उसके पालन-पोषण के लिए विवाह करते हैं। यह विवाह इस तरह माता-पिता द्वारा अनुमोदित है।
3. आर्ष विवाह- जिसमें कन्या का पिता यज्ञादि धर्म कार्यों के लिए एक या दो जोड़ी गाय अथवा बैल लेकर ऋत्विक(पुरोहित) को कन्या प्रदान करता है, वह आर्ष विवाह है।30 इसकी एक परिभाषा यह भी उचित लगती है-किसी ऋषि पुत्र की आध्यात्मिक और बौद्धिक-योग्यता देखकर उसके साथ कन्या का विवाह करना आर्ष कहलाता है।31 इस विवाह में किसी प्रकार का उत्सवादि नहीं होता है।
4. दैवत विवाह- किसी पुरोहित द्वारा यज्ञ किए जाने पर उसे अलंकृत एवं सुसज्जित कन्या दक्षिणा के रूप में प्रदान करना वह दैवत विवाह है।32 जैन परम्परा में इस विवाह को अकृत्य माना है तथापि हिन्दू परम्परा के प्रथम तीन वर्गों में यह विवाह प्रचलित रहा है।
5. गांधर्व विवाह- वर और कन्या के पारस्परिक-प्रेम और शर्त पर जो विवाह सम्पन्न होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं। स्वयंवर प्रथा का इसी के
अन्तर्गत समावेश होता है। ___6. आसुरी विवाह- कन्या को शर्त पूर्वक ग्रहण करना जैसे-जुआ खेलते समय शर्त लगाना कि “मैं हारूंगा, तो अपनी कन्या दूंगा, तुम हारोगे, तो तुम्हारी लड़की मैं लूंगा"-इस प्रकार शर्त लगाकर कन्या ग्रहण करना आसुरी विवाह है। वैदिक ग्रन्थों में आसुरी-विवाह के सन्दर्भ में विभिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं।