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288...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन व्यक्तियों के बीच एक सर्वथा नवीन सम्बन्ध स्थापित करती है, जिनके सपरिणाम समाज को ऊँचाईयों की ओर ले जाने में प्रबल कारण बनते हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि इस संस्कार के कृत्य सोद्देश्य और किसी न किसी अर्थ के प्रतीक रूप में अनुष्ठित हुए हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
कन्यादान के तात्त्विक पहलू - कन्या के अभिभावकों को उसके उत्तरदायित्व से निवृत्त कर उन दायित्वों को वरपक्ष के अभिभावकों में स्थानान्तरित करना कन्यादान है। कन्यादान के पूर्व तक कन्या के भरण-पोषण, संरक्षण-संवर्द्धन, सुख-शान्ति, आनन्द- उल्लास आदि का ख्याल माता-पिता रखते हैं, तदुपरान्त यह दायित्व पति एवं उसके कुटुम्बियों को निभाना होता है। कन्यादान के समय कन्या के हाथों में हरिद्रा लगाते हैं, वह मंगल सूचक क्रिया है। लक्ष्मी का प्रतीक स्वर्ग है और स्वर्ग को पीले रंग का माना गया है। कन्या के हाथ पीतवर्णी इसलिए भी किए जाते हैं कि अब तक लाड़-प्यार से रही, अब उसे अपने हाथों को नव-निर्माण के अनेक उत्तरदायित्व संभालने को तैयार करना है। इसके द्वारा यह मौन-संदेश भी दिया जाता है कि उसे आगे सृजनशक्ति के रूप में प्रकट होना है और इसके लिए इन कोमल हाथों को अधिक उत्तरदायी एवं कठोर बनाना है। इस कृत्य के माध्यम से ससुराल पक्षीय सदस्यों को भी यह शिक्षा दी जाती है कि वे कच्ची उम्र की अनुभवहीन एवं भावुक बालिका को स्नेह, सहयोग तथा सुख शान्ति पूर्वक रखें।
पाणिग्रहण के मार्मिक संदेश- कन्या द्वारा अपना हाथ वर के हाथ में सौंपना तथा वर द्वारा कन्या के हाथ को अपने हाथों में ग्रहण करना अथवा अपने हाथ को कन्या के हाथों में सुपुर्द करना पाणिग्रहण कहलाता है। इसका हार्द यह है कि पाणिग्रहण के पश्चात वर और वधू-दोनों एक-दूसरे के पूरक बनते हुए एक दूसरे विकास में सहयोगी बने एवं जीवन यात्रा के निर्वहन में आधार स्तंभ बनें। दोनों में परस्पर आग्रह बुद्धि या हठाग्रह वृत्ति का नामोनिशान नहीं रह सकेगा और इसी में दाम्पत्य जीवन का वास्तविक आनन्द निहित है। इस प्रसंग पर वर यह भी अनुभव करे कि कन्या ने अपना व्यक्तित्व, अपनी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ एवं गतिविधियों को संचालित करने का सम्पूर्ण दायित्व अर्थात सम्पूर्ण जीवन उसे सौप दिया है और उसने भी समाज के सम्मुख इन दायित्वों के निर्वहन का संकल्प लिया है, इसीलिये उसने वधू का हाथ थाम