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260... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
परम्परा को स्थायित्व प्राप्त होता है। तीर्थंकरों के माता-पिता होने का गौरव भी इसी धर्म द्वारा प्राप्त है। इस दृष्टि से पाणिग्रहण द्वारा आरम्भ होने वाला गृहस्थ जीवन सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास की अटूट गाथा है। दाम्पत्यसूत्र में बंधने के बाद गृहस्थ धर्म के नीति-नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति चारित्रिक विकास के चरम सोपानों को हासिल कर सकता है। व्यक्ति 'पाणिग्रहण' के समय कुछ नीति-नियमों के पालन करने की शपथ भी ग्रहणं करता है। वह नियम अग्नि की साक्षी में लिया जाता है, उसके बाद उन्हें न तोड़ा जा सकता है और न ही वापस लिया जा सकता है। मन, वचन और काया से इसे जीवन पर्यन्त निभाना होता है। इसे निभाने की प्रक्रिया में पति-पत्नी दोनों को नैतिकता का पालन करना होता है। उन्हें निरन्तर यह विश्वास बना रहता है है। कि उनका जीवन परस्पर समर्पित है। पत्नी पति एक-दूसरे के लिए पूरक किसी एक के बिना दूसरे का जीवन अपूर्ण है। दोनों एक ही रथ के दो पहिए हैं और जब ये दोनों चक्र नैतिक मर्यादापूर्वक समान रूप से चलते रहें तो गृहस्थ अपने जीवन के गन्तव्य पारिवारिक सुख समृद्धि को प्राप्त कर सकता है। इस तरह वैवाहिक जीवन में नैतिक सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हुआ है।
दार्शनिक दृष्टि से - दार्शनिक सिद्धान्तानुसार सृष्टि की संरचना के लिए प्रकृति और पुरूष दोनों का समन्वय होना अत्यन्त आवश्यक है। सांख्य दार्शनिकों ने सृष्टि हेतु प्रकृति एवं पुरूष के प्रदेय की व्याख्या की है । स्त्री प्रकृति स्वरूपा होती है वही पुरूष पुरूष स्वरूप होता है। इन दोनों के सहयोग से मानव-जाति का विकास होता है। इस प्रकार संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया, जो सृष्टि का बीज है, इसकी भूमिका विवाह संस्कार से बनती है तथा जो भी संस्कार शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट हैं, वे सारे के सारे आधेय हैं और उनका आधार विवाह संस्कार है। इस तरह संतानोत्पत्ति इस संसार का बहुत ही अनिवार्य अंग है, जिसका सम्पादन विवाह संस्कार द्वारा ही संभव हो पाता है। 15
पारिवारिक दृष्टि से - विवाह संस्कार द्वारा परिवार के वातावरण में अपूर्व परिवर्तन होता है। इससे पूर्व परिवार में माता-पिता, भाई-बहिन ही होते हैं, किन्तु इस संस्कार द्वारा पति-पत्नी के रूप में एक नवीन रिश्ते की सृष्टि होती है। यदि दाम्पत्य जीवन में आत्मीयता एवं समर्पणभाव हो, तो घर में केवल खुशियाँ ही नहीं रहती हैं, शुभ संवेदनाएँ भी होती हैं। कहीं भी उदासीनता या