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विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ...249 के सम्बन्ध के रूप में की गई है। इस सम्बन्ध में भौतिक जीवन दृष्टि वह है जिसका प्रारम्भ, मध्य एवं अवसान इसी धरती पर होता है जैसे- पुरूष-स्त्री का यौन सम्बन्धों के आधार पर एक सामाजिक-रेखा के अन्दर बंधना, सांसारिक भोग विलास में रत रहना, संतानोत्पादन करना, गृहस्थ धर्म का संचालन करना, सामाजिक- दायित्वों का पालन आदि। इन्हीं बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में 'विशेष'
और 'वहन' शब्द का अर्थ निर्णीत करना है। सामान्यतया विवाह-संस्कार के द्वारा इन दायित्वों को एक उत्तम तरीके से सम्पादित करना विशेष वहन करना माना जा सकता है।
• सायण ने विवाह शब्द की निरूक्ति इस प्रकार की है- 'तदिदं विपर्यासेन सम्बन्धनयनं विवाहम्' अर्थात परस्पर विरूद्ध स्वभावी दो मौलिक शक्तियों का विश्वकल्याण के उद्देश्य से अन्योन्य सम्बन्ध स्थापित करना 'विवाह' है।
• विवाह की पर्याय वाच्यार्थ कुछ परिभाषाएँ निम्न हैं- उद्वाह-इसका अर्थ है, कन्या को ऊपर ले जाना। विवाह अर्थात कन्या को विशेष प्रयोजन से ले जाना। परिणय-इसका अर्थ है, किसी के साथ परिक्रमा करना या अग्नि की प्रदक्षिणा देना या प्रेम करना। उपयम-इसका अर्थ है, सन्निकट ले जाना और अपना बना लेना। पाणिग्रहण-इसका अर्थ है, हाथ पकड़ना। यद्यपि ये पर्याय नाम विवाह-संस्कार का केवल एक-एक पक्ष ही बताते हैं, तथापि इन शब्दों का प्रयोग विवाह के अर्थ में हुआ है। इस प्रकार विवाह शब्द के अनेक अर्थ हैं।
• जैन परम्परानुसार विवाह की किंचिद् परिभाषाएँ निम्नोक्त हैंतत्त्वार्थराजवर्त्तिक में सातावेदनीय और चारित्रमोहनीय के उदय से विवहन, अर्थात कन्यावरण करने को विवाह कहा गया है। आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में कहा है कि अग्नि, वीतरागी देव और द्विज(प्रतिष्ठाचार्य) की साक्षी पूर्वक पाणिग्रहण क्रिया का सम्पन्न होना विवाह है।
• भारतीय मान्यतानुसार विवाह संस्कार की कतिपय परिभाषाएँ इस प्रकार हैं1. जिससे संस्कृत होकर मानव विशेषत: वेद, लोक, प्रजा और धर्म इन
चार भावों की कृतकृत्यता सम्पादन करने में समर्थ होता है, वह विवाह संस्कार है।