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252... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
भारतीय परम्परा में विवाह के आयोजन में अनेक प्रकार की औपचारिकताएँ एवं अनुष्ठान किए जाते हैं। यह दाम्पत्यसूत्र में बंधने वाले युगल को मनोवैज्ञानिक रूप से एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान बनाते हैं। जो इनकी मनोवैज्ञानिकता को नहीं समझ पाते हैं, वे लोग(आधुनिक पीढ़ी) इन्हें ‘व्यर्थ का आडंबर’, ‘ढकोसला' और 'समय एवं धन की बरबादी' जैसी उपाधियाँ प्रदान करते हैं। वे 'फास्टफूड' की तरह 'इंस्टंट मैरिज' की ओर अधिक ध्यान देने लगे हैं, किन्तु इनके परिणाम सुन्दर नहीं आते। प्रत्येक औपचारिकता एवं अनुष्ठान का भी अपना एक उद्देश्य और महत्त्व होता है। जैसे माँ या पत्नी द्वारा बनाया हुआ भोजन हो, उसमें केवल भोजन के रस ही नहीं होते, बल्कि आत्मीयता, स्नेह एवं अपनत्व की भावनाएँ भी होती हैं, इसी प्रकार भारतीय पद्धति के अनुसार विवाह संबंधी अनुष्ठान दाम्पत्य जीवन में आध्यात्मिक सरसता के संस्कारों का निर्माण करते हैं, जिनका माधुर्य यावज्जीवन बना रहता है और इसीलिये विवाह माधुर्य भावों में बंधने का एक अमोघ सूत्र है। गृहस्थ जीवन की सार्थकता के लिए विवाह एक सुपरिचित एवं मर्यादित संस्था है। अच्छे संस्कारित जीवन के लिए आत्म धर्म और लोकधर्म इन दोनों का पालन करना अत्यावश्यक है तथा लोक धर्म का पालन संस्कारित विवाह सम्बन्ध पर निर्भर है। गृहस्थ जीवन में रहते हुए धर्म, अर्थ, काम-इन तीन पुरूषार्थों को प्राप्त करना संभव है अतः भारत की सभी प्राचीन परम्पराओं में धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक समन्वय के लिए विवाह को आवश्यक विधान माना है । "
सागारधर्मामृत में कहा गया है कि 'विवाह में उत्तम कन्या का सम्बन्ध साधर्मी व्यक्ति के साथ करने पर उसे धर्म, अर्थ एवं काम की पूर्ति करने वाला गृहस्थाश्रम प्रदान किया जाता है, क्योंकि विद्वज्जन गृहिणी को ही घर कहते हैं, दीवार और छप्पर को नहीं। 7
समाहारतः विवाह एक मर्यादित जीवन जीने की उत्तम संस्था है, लोक धर्म पालन का मुख्य केन्द्र है और तीन पुरुषार्थों को समन्वित रूप में साधने का अमोघ उपाय है। साथ ही धार्मिक, पारिवारिक एवं सामाजिक गतिविधियों को सुव्यवस्थित रूप देने का एक प्रमुख साधन है।